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नियमसार
३३१
"जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिदियं च पच्छण्णं। सयलं सगं च इदरं तं गाणं हवदि पच्चक्खं ।।''
तथा हि
(मंदाक्रांता) सम्यग्वर्ती त्रिभुवनगुरु: शाश्वतानन्तधामा लोकालोकौ स्वपरमखिलं चेतनाचेतनं च। तार्तीयं यन्नयनमपरं केवलज्ञानसंज्ञं तेनैवायं विदितमहिमा तीर्थनाथो जिनेन्द्रः ।। २८३ ।।
पुव्वुत्तसयलदव्वं णाणागुणपज्जएण संजुत्तं। जो ण य पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स।।१६८ ।।
पूर्वोक्तसकलद्रव्यं नानागुणपर्यायेण संयुक्तम्। यो न च पश्यति सम्यक् परोक्षदृष्टिर्भवेत्तस्य।। १६८ ।।
“[गाथार्थ:-] देखनेवाले का जो ज्ञान अमूर्तको, मूर्त पदार्थोमें भी अतींद्रियको, और प्रच्छन्नको इन सबको-स्वको तथा परको--देखता है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष है।"
और ( इस १६७ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ):
[ श्लोकार्थ:-] केवलज्ञान नामका जो तीसरा उत्कृष्ट नेत्र उसीसे जिनको प्रसिद्ध महिमा है, जो तीन लोकके गुरु हैं और शाश्वत अनंत जिनका धाम है-ऐसे यह तीर्थनाथ जिनेंद्र लोकालोकको अर्थात् स्व-पर ऐसे समस्त चेतन-अचेतन पदार्थोको सम्यक् प्रकारसे ( बराबर ) जानते हैं। २८३।।
गाथा १६८ अन्वयार्थ:-[ नानागुणपर्यायेण संयुक्तम् ] विविध गुणों और पर्यायोंसे संयुक्त [ पूर्वोक्तसकलद्रव्यं ] पूर्वोक्त समस्त द्रव्योंको [ य:] जो [ सम्यक् ] सम्यक् प्रकारसे (बराबर ) [ न च पश्यति ] नहीं देखता, [ तस्य ] उसे [ परोक्षदृष्टि: भवेत् ] परोक्ष दर्शन है।
* धाम = (१) भव्यता; (२) तेज; (३) बल।
जो विविध गुण पर्यायसे संयुक्त सारी सृष्टि है। देखे न जो सम्यक् प्रकार परोक्ष रे वह दृष्टि है ।।१६८।।
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