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नियमसार
३२९
( मंदाक्रांता) पश्यत्यात्मा सहजपरमात्मानमेकं विशुद्धं स्वान्तःशुद्धयावसथमहिमाधारमत्यन्तधीरम्। स्वात्मन्युच्चैरविचलतया सर्वदान्तर्निमग्नं तस्मिन्नैव प्रकृतिमहति व्यावहारप्रपंचः।। २८२ ।।
[अब इस १६६ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
[श्लोकार्थ:-] [*निश्चयसे] आत्मा सहज परमात्माको देखता है कि जो परमात्मा एक है, विशुद्ध है, निज अंतःशुद्धिका आवास होनेसे ( केवलज्ञान-दर्शनादि ) महिमाका धारण करनेवाला है, अत्यंत धीर है और निज आत्मामें अत्यंत अविचल होनेसे सर्वदा अंतर्मग्न है; स्वभावसे महान ऐसे उस आत्मामें व्यवहारप्रपंच ( विस्तार ) है ही नहीं (अर्थात् निश्चयसे आत्मामें लोकालोकको देखनेरूप व्यवहारविस्तार है ही नहीं)। २८२।
* यहाँ निश्चय-व्यवहार संबंधी ऐसा समझना कि-जिसमें स्वकी ही अपेक्षा हो वह निश्चय
कथन है और जिसमें परकी अपेक्षा आये वह व्यवहारकथन है; इसलिये केवली भगवान लोकालोकको-परको जानते-देखते हैं ऐसा कहना वह व्यवहारकथन है और केवली भगवान स्वात्माको जानते-देखते हैं ऐसा कहना वह निश्चयकथन है। यहाँ व्यवहारकथनका वाच्यार्थ ऐसा नहीं समझना कि जिसप्रकार छद्मस्थ जीव लोकालोकको जानता-देखता ही नहीं है उसीप्रकार केवली भगवान लोकालोकको जानते-देखते ही नहीं हैं। छद्मस्थ जीवके साथ तुलनाकी अपेक्षासे तो केवली भगवान लोकालोकको जानते-देखते हैं वह बराबर सत्य है-यथार्थ है, क्योंकि वे त्रिकाल संबंधी सर्व द्रव्यगुणपर्यायोंको यथास्थित बराबर परिपूर्णरूपसे वास्तवमें जानते-देखते हैं। 'केवली भगवान लोकालोकको जानते-देखते हैं' ऐसा कहते हुए परकी अपेक्षा आती है इतना ही सूचित करने के लिये, तथा केवली भगवान जिसप्रकार स्वको तद्रूप होकर निजसुखके संवेदन सहित जानते-देखते हैं उसीप्रकार लोकालोकको (परको) तद्रूप होकर परसुखदुःखादिके संवेदन सहित नहीं जानते-देखते, परंतु परसे बिलकुल भिन्न रहकर, परके सुखदुःखादिका संवेदन किये बिना जानते-देखते हैं इतना ही सूचित करने के लिये उसे व्यवहार कहा है।
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