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नियमसार
३२७
निश्चयनयेन स्वरूपाख्यानमेतत्।
निश्चयनयेन स्वप्रकाशकत्वलक्षणं शुद्धज्ञानमिहाभिहितं तथा सकलावरणप्रमुक्तशुद्धदर्शनमपि स्वप्रकाशकपरमेव। आत्मा हि विमुक्तसकलेन्द्रियव्यापारत्वात् स्वप्रकाशकत्वलक्षणलक्षित इति यावत्। दर्शनमपि विमुक्तबहिर्विषयत्वात् स्वप्रकाशकत्वप्रधानमेव। इत्थं स्वरूपप्रत्यक्षलक्षणलक्षिताक्षुण्णसहजशुद्धज्ञानदर्शनमयत्वात् निश्चयेन जगत्त्रयकालत्रयवर्तिस्थावरजंगमात्मकसमस्तद्रव्यगुणपर्यायविषयेषु *आकाशाप्रकाशकादिविकल्पविदूरस्सन् स्वस्वरूपे *संज्ञालक्षणप्रकाशतया निरवशेषेणान्तर्मुखत्वाद-नवरतम् अखंडाद्वैतचिच्चमत्कारमूर्तिरात्मा तिष्ठतीति।
(मंदाक्रांता)
आत्मा ज्ञानं भवति नियतं स्वप्रकाशात्मकं या दृष्टि: साक्षात् प्रहतबहिरालंबना सापि चैषः। एकाकारस्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराण: स्वस्मिन्नित्यं नियतवसतिनिर्विकल्पे महिम्नि।। २८१ ।।
टीका:-यह, निश्चयनयसे स्वरूपका कथन है।
यहाँ निश्चयनयसे शुद्ध ज्ञानका लक्षण स्वप्रकाशकपना कहा है; उसीप्रकार सर्व आवरणसे मुक्त शुद्ध दर्शन भी स्वप्रकाशक ही है। आत्मा वास्तवमें, उसने सर्व इंद्रियव्यापारको छोड़ा होनेसे, स्वप्रकाशकस्वरूप लक्षणसे लक्षित है; दर्शन भी, उसने बहिर्विषयपना छोड़ा होनेसे स्वप्रकाशकत्वप्रधान ही है। इसप्रकार स्वरूपप्रत्यक्ष-लक्षणसे लक्षित अखंड-सहज-शुद्धज्ञानदर्शनमय होनेके कारण, निश्चयसे, त्रिलोक-त्रिकालवर्ती स्थावर-जंगमस्वरूप समस्त द्रव्यगुणपर्यायरूप विषयों संबंधी प्रकाश्य-प्रकाशकादि विकल्पोंसे अति दूर वर्तता हुआ, स्वस्वरूपसंचेतन जिसका लक्षण है ऐसे प्रकाश द्वारा सर्वथा अंतर्मुख होनेके कारण , आत्मा निरंतर अखंड-अद्वैत-चैतन्यचमत्कारमूर्ति रहता है।
[ अब इस १६५ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[श्लोकार्थ:-] निश्चयसे आत्मा स्वप्रकाशक ज्ञान है; जिसने बाह्य आलंबन नष्ट किया है ऐसा ( स्वप्रकाशक) जो साक्षात् दर्शन उस-रूप भी आत्मा है। एकाकार निजरसके विस्तारसे पूर्ण होनेके कारण जो पवित्र है तथा जो पुराण ( सनातन) है ऐसा यह आत्मा सदा अपनी निर्विकल्प महिमामें निश्चितरूपसे वास करता है। २८१।। * यहाँ कुछ अशुद्धि हो ऐसा लगता है।
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