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नियमसार
३२५
व्यवहारनयस्य सफलत्वप्रद्योतनकथनमाह।
इह सकलकर्मक्षयप्रादुर्भावासादितसकलविमलकेवलज्ञानस्य पुद्गलादिमूर्तामूर्तचेतनाचेतनपरद्रव्यगुणपर्यायप्रकरप्रकाशकत्वं कथमिति चेत्, पराश्रितो व्यवहार: इति
व्यवहारनयबलेनेति। ततो दर्शनमपि तादृशमेव। त्रैलोक्यप्रक्षोभहेतुभूततीर्थकरपरमदेवस्य शतमखशतप्रत्यक्षवंदनायोग्यस्य कार्यपरमात्मनश्च तद्वदेव परप्रकाशकत्वम्। तेन व्यवहारनयबलेन च तस्य खलु भगवतः केवलदर्शनमपि तादृशमेवेति।
वचनात
तथा चोक्तं श्रुतबिन्दौ
(मालिनी) "जयति विजितदोषोऽमर्त्यमर्येन्द्रमौलिप्रविलसदुरुमालाभ्यर्चितांधिर्जिनेन्द्रः। त्रिजगदजगती यस्येदृशौ व्यश्चवाते सममिव विषयेष्वन्योन्वृत्तिं निषेद्धम्।।''
टीका:-यह, व्यवहारनयकी सफलता दर्शानेवाला कथन है।
समस्त (ज्ञानावरणीय) कर्मका क्षय होनेसे प्राप्त होनेवाला सकल-विमल केवलज्ञान पुद्गलादि मूर्त-अमूर्त चेतन-अचेतन परद्रव्यगुणपर्यायसमूहका प्रकाशक किसप्रकार है-ऐसा यहाँ प्रश्न हो, तो उसका उत्तर यह है कि-'पराश्रितो व्यवहारः ( व्यवहार पराश्रित है)' ऐसा (शास्त्रका) वचन होनेसे व्यवहारनयके बलसे ऐसा है (अर्थात् परप्रकाशक है); इसलिये दर्शन भी वैसा ही ( –व्यवहारनयके बलसे परप्रकाशक) है। और तीन लोकके "प्रक्षोभके हेतुभूत तीर्थंकर-परमदेवको-कि जो सौ इंद्रोकी प्रत्यक्ष वंदनाके योग्य हैं और कार्यपरमात्मा हैं उन्हें-ज्ञानकी भाँति ही ( व्यवहारनयके बलसे) परप्रकाशकपना है; इसलिये व्यवहारनयके बलसे उन भगवानका केवलदर्शन भी वैसा ही है।
इसीप्रकार श्रुतबिन्दुमें (श्लोक द्वारा) कहा है कि:
“[ श्लोकार्थ:-] जिन्होंने दोषोंको जीता है, जिनके चरण देवेंद्रो तथा नरेंद्रोंके मुकुटोंमें प्रकाशमान मूल्यवान मालाओंसे पूजते हैं ( अर्थात् जिनके चरणोंमें इंद्र तथा चक्रवर्तियोंके मणिमालायुक्त मुकुटवाले मस्तक अत्यंत झूकते हैं), और (लोकालोकके समस्त) पदार्थ एक-दूसरेमें प्रवेशको प्राप्त न होकर इसप्रकार तीन लोक औरे अलोक
* प्रक्षोभके अर्थके लिये ८२ वें पूष्ठकी टिप्पणी देखो।
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