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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निश्चय-परमावश्यक अधिकार ३०६ ह्यभव्याः। कर्म नानाविधं द्रव्यभावनोकर्मभेदात्, अथवा मूलोत्तरप्रकृतिभेदाच्च, अथ तीव्रतरतीव्रमंदमंदतरोदयभेदाद्वा। जीवानां सुखादिप्राप्तेलब्धि: कालकरणोपदेशोपशमप्रायोग्यताभेदात् पञ्चधा। ततः परमार्थवेदिभिः स्वपरसमयेषु वादो न कर्तव्य इति। (शिखरिणी) विकल्पो जीवानां भवति बहुधा संसृतिकर: तथा कर्मानेकविधमपि सदा जन्मजनकम। असौ लब्धि ना विमलजिनमार्गे हि विदिता ततः कर्तव्यं नो स्वपरसमयैर्वादवचनम्।। २६७ ।। लक्ष्णं णिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते। तह णाणी णाणणिहिं भुंजेइ चइत्तु परतत्तिं।। १५७ ।। अभव्य हैं। द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म ऐसे भेदोंके कारण, अथवा (आठ) मूल प्रकृति और (एक सौ अड़तालीस) उत्तर प्रकृतिरूप भेदोंके कारण, अथवा तीव्रतर, तीव्र, मंद और मंदतर उदयभेदोंके कारण, कर्म नाना प्रकारका है। जीवोंको सुखादिकी प्राप्तिरूप लब्धि काल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्यतारूप भेदोंके कारण पाँच प्रकारकी है। इसलिये परमार्थके जाननेवालोंको स्वसमयों तथा परसमयोंके साथ वाद करने योग्य नहीं है। [भावार्थ:- जगतमें जीव, उनके कर्म, उनकी लब्धियाँ आदि अनेक प्रकारके हैं; इसलिये सर्व जीव समान विचारोंके हों ऐसा असंभव है। इसलिये पर जीवोंको समझा देनेकी आकुलता करना योग्य नहीं है। स्वात्मावलंबनरूप निज हितमें प्रमाद न हो इसप्रकार रहना ही कर्तव्य है।] [अब इस १५६ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते [ श्लोकार्थ:-] जीवोंके, संसारके कारणभूत ऐसे (त्रस, स्थावर आदि) बहुत प्रकारके भेद हैं; इसीप्रकार सदा जन्मका उत्पन्न करनेवाला कर्म भी अनेक प्रकारका है; यह लब्धि भी विमल जिनमार्गमें अनेक प्रकारकी प्रसिद्ध है; इसलिये स्वसमयों और परसमयोंके साथ वचनविवाद कर्तव्य नहीं है। २६७। निधि पा... मनुज तत्फल वतन में गुप्त रह ज्यों भोगता। त्यों छोड़ परजन-संग ज्ञानी ज्ञान निधिको भोगता ।। १५७ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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