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नियमसार
३०३
(शिखरिणी) असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले न मुक्तिर्मार्गेऽस्मिन्ननघजिननाथस्य भवति। अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवेन्निर्मलधियां निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम्।। २६४ ।।
जिणकहियपरमसुत्ते पडिकमणादिय परीक्खऊण फुडं। मोणव्वएण जोई णियकज्जं साहए णिच्चं ।। १५५ ।।
जिनकथितपरमसूत्रे प्रतिक्रमणादिकं परीक्षयित्वा स्फुटम्। मौनव्रतेन योगी निजकार्यं साधयेन्नित्यम्।। १५५ ।।
इह हि साक्षादन्तर्मुखस्य परमजिनयोगिनः शिक्षणमिदमुक्तम्।
यदि इस दग्धकालरूप (हीनकालरूप) अकालमें तू शक्तिहीन हो तो तुझे केवल निज परमात्मतत्त्वका श्रद्धान ही कर्तव्य है।
[अब इस १५४ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:-] असार संसारमें , पापसे भरपूर कलिकालका विलास होनेपर, इस निर्दोष जिननाथके मार्गमें मुक्ति नहीं है। इसलिये इस कालमें अध्यात्मध्यान कैसे हो सकता है ? इसलिये निर्मलबुद्धिवाले भवभयका नाश करनेवाली ऐसी इस निजत्मश्रद्धाको अंगीकृत करते हैं। २६४।
गाथा १५५ अन्वयार्थ:-[ जिनकथितपरमसूत्रे] जिनकथित परम सूत्रमें [प्रति-क्रमणादिकं स्फुटम् परीक्षयित्वा] प्रतिक्रमणादिककी स्पष्ट परीक्षा करके [ मौनव्रतेन] मौनव्रत सहित [ योगी ] योगीको [ निजकार्यम् ] निज कार्य [ नित्यम् ] नित्य [ साधयेत् ] साधना चाहिये।
टीका:-यहाँ साक्षात् अंतर्मुख परमजिनयोगीको यह शिक्षा दी गई है।
पूरा परख प्रतिक्रमण आदिकको परम जिन सूत्रमें । रे साधिय निज कार्य अविरल साधु ! रत व्रत मौनमें । १५५ ।
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