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नियमसार
अथ सूत्रावतार :
णमिऊण जिणं वीरं अणंतवरणाणदंसणसहावं। वोच्छामि णियमसारं केवलिसुदकेवलीभणिदं।।१।।
नत्वा जिनं वीरं अनन्तवरज्ञानदर्शनस्वभावम्। वक्ष्यामि नियमसारं केवलिश्रुतकेवलिभणितम्।।१।।
अथात्र जिनं नत्वेत्यनेन शास्त्रस्यादावसाधारणं मङ्गलमभिहितम्। नत्वेत्यादिअनेकजन्माटवीप्रापणहेतून समस्तमोहरागद्वेषादीन् जयतीति जिनः। वीरो विक्रान्तः, वीरयते शूरयते विक्रामति कर्मारातीन् विजयत इति वीर: -- श्रीवर्द्धमान-सन्मतिनाथमहतिमहावीराभिधानैः सनाथः परमेश्वरो महादेवाधिदेव पश्चिमतीर्थनाथ:
अब ( श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवविरचित) गाथासूत्रका अवतरण किया जाता है:
गाथा १ अन्वयार्थ:-[ अनन्तवरज्ञानदर्शनस्वभावं] अनंत और उत्कृष्ट ज्ञानदर्शन जिनका स्वभाव है ऐसे (–केवलज्ञानी और केवलदर्शनी) [ जिनं वीरं] जिन वीरको [ नत्वा] नमन करके [ केवलिश्रुतकेवलिभणितम् ] केवली तथा श्रुतकेवलियोंका का कहा हुआ [ नियमसारं] नियमसार [ वक्ष्यामि ] मैं कहूँगा।
टीका:-यहाँ “जिनं नत्वा” इस गाथासे शास्त्रके आदिमें असाधारण मंगल कहा है। “ नत्वा” इत्यादि पदोंका तात्पर्य कहा जाता है:---
अनेक जन्मरूप अटवीको प्राप्त करानेके हेतुभूत समस्त मोहरागद्वेषादिकको जो जीत लेता है वह “जिन" है। "वीर" अर्थात विक्रांत (-पराक्रमी); वीरता प्रकट करे, शौर्य प्रगट करे, विक्रम (पराक्रम) दर्शाये, कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करे, वह "वीर" है। ऐसे वीरको - जो कि श्री वर्द्धमान, श्री सन्मतिनाथ, श्री अतिवीर तथा श्री महावीर -इन नामोंसे युक्त हैं, जो परमेश्वर हैं, महादेवाधिदेव हैं, अन्तिम तीर्थनाथ हैं,
नमकर अनन्तोत्कृष्ट दर्शन-ज्ञानमय जिन वीरको। कहुँ नियमसार सु केवली श्रुतकेवली परिकथितको।।१।।
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