SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार २५७ (मन्दाक्रांता) त्यक्त्वा सर्वं सुकृतदुरितं संसृतेर्मूलभूतं नित्यानंदं व्रजति सहजं शुद्धचैतन्यरूपम्। तस्मिन् सदृग विहरति सदा शुद्धजीवास्तिकाये पश्चादुच्चैः त्रिभुवनजनैरर्चितः सन् जिनः स्यात्।। २१५ ।। (शिखरिणी) स्वतःसिद्धं ज्ञानं दुरघसुकृतारण्यदहनं महामोहध्वान्तप्रबलतरतेजोमयमिदम्। विनिर्मुक्तेर्मूलं निरुपधिमहानंदसुखदं यजाम्येतन्नित्यं भवपरिभवध्वंसनिपुणम्।। २१६ ।। (शिखरिणी) अयं जीवो जीवत्यघकुलवशात् संसृतिवधूधवत्वं संप्राप्य स्मरजनितसौख्याकुलमतिः। क्वचिद् भव्यत्वेन व्रजति तरसा निर्वृतिसुखं तदेकं संत्यक्त्वा पुनरपि स सिद्धो न चलति।। २१७ ।। [अब इस १३० वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक कहते हैं:] [ श्लोकार्थ:-] सम्यग्दृष्टि जीव संसारके मूलभूत सर्व पुण्यपापको छोड़कर, नित्यानंदमय, सहज, शुद्धचैतन्यरूप जीवास्तिकायको प्राप्त करता है; वह शुद्ध जीवास्तिकायमें सदा विहरता है और फिर त्रिभुवनजनोंसे (तीन लोकके जीवोंसे ) अत्यंत पूजित ऐसा जिन होता है। २१५ । [श्लोकार्थ:-] यह स्वतःसिद्ध ज्ञान पापपुण्यरूपी वनको जलानेवाली अग्नि है, महामोहांधकारनाशक अतिप्रबल तेजमय है, विमुक्तिका मूल है और निरुपधि महा आनंदसुखका दायक है। भवभयका ध्वंस करनेमें निपुण ऐसे इस ज्ञानको मैं नित्य पूजता हूँ। २१६। [ श्लोकार्थ:-] यह जीव अघसमूहके वशे संसृतिवधूका पतिपना प्राप्त करके ( अर्थात् शुभाशुभ कर्मोंके वश संसाररूपी स्त्रीका पति बनकर ) कामजनित सुखके लिये आकुल मतिवाला होकर जी रहा है। कभी भव्यत्व द्वारा शीघ्र मुक्तिसुखको प्राप्त करता है, * निरुपधि = छल रहित; सच्चे; वास्तविक। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy