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नियमसार
२३९
कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं। तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ णिव्वियप्पेण ।। १२१ ।।
कायादिपरद्रव्ये स्थिरभावं परिहृत्यात्मानम्। तस्य भवेत्तनूत्सर्गो यो ध्यायति निर्विकल्पेन।। १२१ ।।
निश्चयकायोत्सर्गस्वरूपाख्यानमेतत्।
सादिसनिधनमूर्तविजातीयविभावव्यंजनपर्यायात्मक: स्वस्याकार: कायः। आदिशब्देन क्षेत्रवास्तुकनकरमणीप्रभृतयः। एतेषु सर्वेषु स्थिरभावं सनातनभावं परिहृत्य नित्यरमणीयनिरंजननिजकारणपरमात्मानं व्यवहारक्रियाकांडाडम्बरविविधविकल्पकोलाहलविनिर्मुक्तसहजपरमयोगबलेन नित्यं ध्यायति यः सहजतपश्चरणक्षीरवारांराशिनिशीथिनीहृदयाधीश्वरः, तस्य खलु सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणेनिश्चयकायोत्सर्गो भवतीति।
वह कौन जानता है ? १९४ ।
गाथा १२१ अन्वयार्थ:-[ कायादिपरद्रव्ये ] कायादि परद्रव्यमें [ स्थिरभावम् परिहृत्य ] स्थिरभाव छोड़कर [ यः ] जो [ आत्मानम् ] आत्मको [ निर्विकल्पेन ] निर्विकल्परूपसे [ध्यायति] ध्याता है, [ तस्य ] उसे [ तनूत्सर्गः ] कायोत्सर्ग [ भवेत् ] है।
टीका:-यह, निश्चयकायोत्सर्गके स्वरूपका कथन है।
सादि-सांत मूर्त विजातीय-विभाव-व्यंजनपर्यायात्मक अपना आकार वह काय। 'आदि' शब्दसे क्षेत्र, गृह, कनक, रमणी आदि। इन सबमें स्थिरभाव-सनातनभाव छोड़कर (-कायादिक स्थिर हैं ऐसा भाव छोड़कर) नित्य-रमणीय निरंजन निज कारणपरमात्माको व्यवहार क्रियाकांड आडंबर संबंधी विविध विकल्परूप कोलाहल रहित सहज-परम-योगके बलसे जो सहज-तपश्चणरूपी क्षीरसागरका चंद्र (-सहज तपरूपी क्षीरसागरनका उछालनेमें चंद्र समान ऐसा जो जीव) नित्य ध्याता है, उस सहज वैराग्यरूपी महलके शिखरके शिखामणिको (-उस परम सहज-वैराग्यवंत जीवको) वास्तवमें निश्चयकायोत्सर्ग
परद्रव्य काया आदिसे परित्याग स्थैर्य, निजात्मको। ध्याता विकल्प-विमुक्त, उसको नियत कायोत्सर्ग है ।। १२१ ।।
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