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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार २३५ अप्पसरूवालंबणभावेण दु सव्वभावपरिहारं। सक्कदि कादं जीवो तम्हा झाणं हवे सव्वं ।। ११९ ।। आत्मस्वरूपालम्बनभावेन तु सर्वभावपरिहारम्। शक्नोति कर्तुं जीवस्तस्माद् ध्यानं भवेत् सर्वम्।। ११९ ।। अत्र सकलभावानामभावं कर्तुं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानमेव समर्थमित्युक्तम्। अखिलपरद्रव्यपरित्यागलक्षणलक्षिताक्षुण्णनित्यनिरावरणसहजपरमपारिणामिकभावभावनया भावान्तराणां चतुर्णामौदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकानां परिहारं गाथा ११९ अन्वयार्थ:-[ आत्मस्वरूपालम्बनभावेन तु] आत्मस्वरूप जिसका आलंबन है ऐसे भावसे [ जीवः ] जीव [ सर्वभावपरिहारं ] सर्वभावोंका परिहार [ कर्तुम् शक्नोति ] कर सकता है, [ तस्मात् ] इसलिये [ध्यानम् ] ध्यान वह [ सर्वम् भवेत् ] सर्वस्व है। टीका:-यहाँ (इस गाथामें ), निज आत्मा जिसका आश्रय है ऐसा निश्चयधर्मध्यान ही सर्व भावोंका अभाव करनेमें समर्थ है ऐसा कहा है। समस्त परद्रव्योंके परित्यागरूप लक्षणसे लक्षित अखंड-नित्यनिरावरण-सहजपरमपारिणामिकभावकी भावनासे औदयिक, औपशमिक , क्षायिक तथा क्षायोपशमिक इन चार भावांतरोंका परिहार करनेमें * यहाँ चार भावोंके परिहारमें क्षायिकभावरूप शुद्ध पर्यायका भी परिहार (त्याग) करना कहा है उसका कारण इसप्रकार है: शुद्धात्मद्रव्यका ही-सामान्यका ही-आलंबन लेनेसे क्षायिकभावरूप शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। क्षायिकभावका-शुद्ध पर्यायका-विशेषकाआलंबन करनेसे क्षायिकभावरूप शुद्ध पर्याय कभी प्रगट नहीं होती। इसलिये क्षायिकभावका भी आलंबन त्याज्य है। यह जो क्षायिकभावके आलंबनका त्याग उसे यहाँ क्षायिकभावका त्याग कहा गया है। यहाँ ऐसा उपदेश दिया है कि-परद्रव्योंका और परभावोंका आलंबन तो दूर रहो, मोक्षार्थीको अपने औदयिकभावोंका (समस्त शुभाशुभभावादिकका), औपशमिकभावोंका (जिसमें कीचड़ शुद्धात्म आश्रित भावसे सब भावका परिहार रे । वह जीव कर सकता अत: सर्वस्व है वह ध्यान रे ।। ११९ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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