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नियमसार
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( उपजाति) अध्यात्मशास्त्रामृतवारिराशेर्मयोद्धृता संयमरत्नमाला। वभूव या तत्त्वविदां सुकण्ठे सालंकृतिर्मुक्तिवधूधवानाम्।।१८७ ।।
( उपेन्द्रवज्रा) नमामि नित्यं परमात्मतत्त्वं मुनीन्द्रचित्ताम्बुजगर्भवासम्। विमुक्तिकांतारतिसौख्यमूलं विनष्टसंसारद्रुमूलमेतत्।। १८८ ।।
णंताणंतभवेण समज्जियसुहअसुहकम्मसंदोहो। तवचरणेण विणस्सदि पायच्छित्तं तवं तम्हा।। ११८ ।।
अनन्तानन्तभवेन समर्जितशुभाशुभकर्मसंदोहः। तपश्चरणेन विनश्यति प्रायश्चित्तं तपस्तस्मात्।। ११८ ।।
[ श्लोकार्थ:-] अध्यात्मशास्त्ररूपी अमृतसमुद्रमेंसे मैंने जो संयमरूपी रत्नमाला बाहर निकाली है वह ( रत्नमाला) मुक्तिवधूके वल्लभ ऐसे तत्त्वज्ञानियोंके सुकंठका आभूषण बनी है। १८७।
[ श्लोकार्थ:-] मुनींद्रोंके चित्तकमलके (-हृदयकमलके) भीतर जिसका वास है, जो विमुक्तिरूपी कान्ताके रतिसौख्यका मूल है ( अर्थात् जो मुक्तिके अतींद्रिय आनंदका मूल है) और जिसने संसारवृक्षके मूलका विनाश किया है-ऐसे इस परमात्मतत्त्वको मैं नित्य नमन करता हूँ। १८८।
गाथा ११८ अन्वयार्थ:-[ अनन्तानन्तभवेन ] अनंतानंत भवों द्वारा [ समर्जितशुभाशुभकर्मसंदोहः ] उपार्जित शुभाशुभ कर्मराशि [ तपश्चरणेन ] तपश्चरणसे [ विनश्यति ] नष्ट होती है; [ तस्मात् ] इसलिये [ तपः ] तप [प्रायश्चित्तम् ] प्रायश्चित्त है।
अर्जित अनंतानंत भवके जो शुभाशुभ कर्म हैं। तपसे विनश जाते, सुतप अतएव प्रायश्चित्त है ।। ११८ ।।
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