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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार २१३ भव्यस्य पारिणामिकभावस्वभावेन परमस्वभावः औदयिकादिचतुर्णां विभावस्वभावानामगोचर: स पंचमभावः। अत एवोदयोदीरणक्षयक्षयोपशमविविधविकारविवर्जितः। अतः कारणादस्यैकस्य परमत्वम्, इतरेषां चतुर्णां विभावानामपरमत्वम्। निखिलकर्मविषवृक्षमूलनिर्मूलनसमर्थ: त्रिकालनिरावरणनिजकारणपरमात्मस्वरूपश्रद्धानप्रतिपक्षतीव्रमिथ्यात्वकर्मोदयबलेन कुदृष्टेरयं परमभावः सदा निश्चयतो विद्यमानोऽप्यविद्यमान एव। नित्यनिगोदक्षेत्रज्ञानामपि शुद्धनिश्चयनयेन स परमभावः अभव्यत्वपारिणामिक इत्यनेनाभिधानेन न संभवति। यथा मेरोरधोभागस्थितसुवर्णराशेरपि सुवर्णत्वं, अभव्यानामपि तथा परमस्वभावत्वं; वस्तुनिष्ठं, न व्यवहारयोग्यम्। सुदृशामत्यासन्नभव्यजीवानां सफलीभूतोऽयं परमभावः सदा निरंजनत्वात्; यतः सकलकर्मविषमविषद्रुमपृथुमूलनिर्मूलनसमर्थत्वात्। निश्चयपरमालोचनाविकल्पसंभवालुंछनाभिधानम् अनेन परमपंचमभावेन अत्यासन्नभव्यजीवस्य सिध्यतीति। भव्यको पारिणामिकभावरूप स्वभाव होनेके कारण परम स्वभाव है। वह पंचम भाव औदयिकादि चार विभावस्वभावोंको अगोचर है। इसलिये वह पंचम भाव उदय, उदीरणा, क्षय, क्षयोपशम ऐसे विविध विकारोंसे रहित है। इस कारणसे इस एकको परमपना है, शेष चार विभावोंको अपरमपना है। समस्त कर्मरूपी विषवृक्षके मूलको उखाड़ देनेमें समर्थ ऐसा यह परमभाव, त्रिकाल-निरावरण निज कारणपरमात्माके स्वरूपकी श्रद्धासे प्रतिपक्ष तीव्र मिथ्यात्वकर्मके उयके कारण कुदृष्टिको, सदा निश्चयसे विद्यमान होनेपर भी, अविद्यमान ही है (कारण कि मिथ्या दृष्टिको उस परमभावके विद्यमानपनेकी श्रद्धा नहीं है)। नित्यनिगोदके जीवोंको भी शुद्धनिश्चयनयसे वह परमभाव ‘अभव्यत्वपारिणामिक' ऐसे नाम सहित नहीं है (परंतु शुद्धरूपसे ही है)। जिसप्रकार मेरुके अधोभागमें स्थित सुवर्णराशिको भी सुवर्णपना है, उसीप्रकार अभव्योंको भी परमस्वभावना है; वह वस्तुनिष्ठ है, व्यवहार-योग्य नहीं है (अर्थात् जिसप्रकार मेरुके नीचे स्थित सुवर्णराशिकां सुवर्णपना सुवर्णराशिमें विद्यमान है किन्तु वह उपयोगमें नहीं आता, उसीप्रकार अभव्योंका परमस्वभावपना आत्मवस्तुमें विद्यमान है किन्तु वह काममें नहीं आता क्योंकि अभव्य जीव परमस्वभावका आश्रय करनेमें अयोग्य हैं)। सुदृष्टियोंको-अति आसन्नभव्य जीवोंको-यह परमभाव सदा निरंजनपने के कारण (अर्थात् सदा निरंजनरुपसे प्रतिभासित होने के कारण) सफल हुआ है; जिससे, इस परम पंचमभाव द्वारा अति-आसन्नभव्य जीवको निश्चय–परम-आलोचनाके भेदरूपसे उत्पन्न होनेवाला 'आलुंछन' नाम सिद्ध होता है, कारण कि वह परमभाव समस्त कर्मरूपी विषम-विषवृक्षके विशाल मूलको उखाड़ देनेमें समर्थ है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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