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भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवके सम्बन्धमें
उल्लेख
वन्द्यो विभुर्भुवि न कैरहि कौण्डकुन्दः कुन्द-प्रभा-प्रणयि-कीर्ति-विभूषिताशः । यश्चारु-चारण-कराम्बुजचञ्चरीकश्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ।।
[चन्द्रगिरि पर्वतका शिलालेख]
अर्थ :--- कुन्दपुष्पकी प्रभा धारण करनेवाली जिनकी कीर्ति द्वारा दिशाएँ विभूषित हुई हैं, जो चारणोंके---चारणऋद्धिधारी महामुनियोंके---सुन्दर हस्तकमलोंके भमर थे
और जिन पवित्रात्माने भरतक्षेत्रमें श्रुतकी प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किससे वन्द्य नहीं हैं ?
...कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ।। रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तबर्बाह्येपि संव्यञ्जयितुं यतीशः । रजःपदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरंगुलं सः ।।
[विध्यगिरि-शिलालेख]
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