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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार २०१ यः श्रीमदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतपरमागमार्थविचारक्षमः अशुद्धान्तस्तत्त्वकर्मपुद्गलयोरनादिबन्धनसंबन्धयोर्भेदं भेदाभ्यासबलेन करोति, स परमसंयमी निश्चयव्यवहारप्रत्याख्यानं स्वीकरोतीति। (स्वागता) भाविकालभवभावनिवृत्तः । सोहमित्यनुदिनं मुनिनाथः। भावयेदखिलसौख्यनिधानं स्वस्वरूपममलं मलमुक्त्यै।। १४३ ।। (स्वागता) घोरसंसृतिमहार्णवभास्वद्यानपात्रमिदमाह जिनेन्द्रः। तत्त्वतः परमतत्त्वमजसं भावयाम्यहमतो जितमोहः।। १४४ ।। श्रीमद् अहँतके मुखारविंदसे निकले हुए परमागमके अर्थका विचार करनेमें समर्थ ऐसा जो परम संयमी अनादि बंधनरूप संबंधवाले अशुद्ध अंतःतत्त्व और कर्मपुद्गलका भेद भेदाभ्यासके बलसे करता है, वह परम संयमी निश्चयप्रत्याख्यान तथा व्यवहारप्रत्याख्यानको स्वीकृत ( –अंगीकृत) करता है। [अब , इस निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव नौ श्लोक कहते हैं:] [ श्लोकार्थ:-] 'जो भावि कालके भव-भावोंसे ( संसारभावोंसे ) निवृत्त है वह मैं हूँ' इसप्रकार मुनीश्वरको मलसे मुक्त होनेके लिये परिपूर्ण सौख्यके निधानभूत निर्मल निज स्वरूपको प्रतिदिन भाना चाहिये। १४३। [ श्लोकार्थ:-] घोर संसारमहार्णवकी यह ( परम तत्त्व ) दैदीप्यमान नौका है ऐसा जिनेंद्रदेवने कहा है; इसलिये मैं मोहको जीतकर निरंतर परम तत्त्वको तत्त्वतः (पारमार्थिक रीतिसे) भाता हूँ। १४४ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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