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परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार
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उन्मार्गं परित्यज्य जिनमार्गे यस्तु करोति स्थिरभावम्। स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात्।। ८६ ।।
अत्र उन्मार्गपरित्यागः सर्वज्ञवीतरागमार्गस्वीकारश्चोक्तः।
यस्तु शंकाकांक्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवमलकलंकपंकनिर्मुक्तः शुद्धनिश्चयसदृष्टि: बुद्धादिप्रणीतमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मकं मार्गाभासमुन्मार्ग परित्यज्य व्यवहारेण
महादेवाधिदेवपरमेश्वरसर्वज्ञवीतरागमार्गे पचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिपंचेन्द्रियनिरोध- षडावश्यकाद्यष्टाविंशतिमूलगुणात्मके स्थिरपरिणामं करोति, शुद्धनिश्चयनयेन सहज- बोधादिशुद्धगुणालंकृते सहजपरमचित्सामान्यविशेषभासिनि निजपरमात्मद्रव्ये स्थिरभावं शुद्धचारित्रमयं करोति, स मुनिर्निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते, यस्मान्निश्चयप्रतिक्रमणं ।
गाथा ८६ अन्वयार्थ:-[ यः तु] जो (जीव) [ उन्मार्ग ] उन्मार्गका [ परित्यज्य ] परित्याग करके [ जिनमार्गे ] जिनमार्गमें [ स्थिरभावम् ] स्थिरभाव [ करोति] करता है, [ सः ] वह (जीव) [ प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [ उच्यते ] कहलाता है, [यस्मात् ] कारण कि वह [ प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है।
टीका:-यहाँ उन्मार्गके परित्याग और सर्वज्ञवीतराग-मार्गके स्वीकारका वर्णन किया गया है।
___ जो शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तवरूप मलकलंकपंकसे विमुक्त ( –मलकलंकरूपी कीचड़से रहित) शुद्धनिश्चयसम्यग्दृष्टि (जीव) बुद्धादिप्रणीत मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मक मार्गाभासरूप उन्मार्गका परित्याग करके, व्यवहारसे पाँच महाव्रत, पाँच समिति, त्रण गुप्ति, पाँच इंद्रियोंका निरोध, छह आवश्यक इत्यादि अट्ठाईस मूलगुणस्वरूप महादेवाधिदेव-परमेश्वर-सर्वज्ञ-वीतरागके मार्गमें स्थिर परिणाम करता है, और शुद्धनिश्चयनयसे सहजज्ञानादि शुद्धगुणोसे अलंकृत, सहज परम चैतन्यसामान्य तथा (सहज परम) चैतन्यविशेषरूप जिसका प्रकाश है ऐसे निज परमात्मद्रव्यमें शुद्धचारित्रमय स्थिरभाव करता है, ( अर्थात् जो शुद्धनिश्चय-सम्यग्दृष्टि जीव व्यवहारसे अट्ठाईस मूलगुणात्मक मार्गमें और निश्चयसे शुद्ध गुणोंसे शोभित दर्शनज्ञानात्मक
* अन्यदृष्टिसंस्तव = (१) मिथ्यादृष्टिका परिचय; (२) मिथ्यादृष्टिकी स्तुति। (मनसे
मिथ्यादृष्टिकी महिमा करना वह अन्यदृष्टिप्रशंसा है और मिथ्यादृष्टिकी महिमाके वचन बोलना वह अन्यदृष्टिसंस्तव है।)
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