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परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार
अत्रात्माराधनाय वर्तमानस्य जन्तोरेव प्रतिक्रमणस्वरूपमुक्तम्।
यस्तु परमतत्त्वज्ञानी जीव: निरन्तराभिमुखतया ह्यत्रुटयत्परिणामसंतत्या साक्षात् स्वभावस्थितावात्माराधनायां वर्तते अयं निरपराधः। विगतात्माराधन: सापराधः, अत एव निरवशेषेण विराधनं मुक्त्वा। विगतो राधो यस्य परिणामस्य स विराधनः। यस्मान्निश्चयप्रतिक्रमणमयः स जीवस्तत एव प्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते।
तथा चोक्तं समयसारे
''संसिद्धिराधसिद्धं साधियमाराधियं च एयटुं।
अवगदराधो जो खलु चेदा सो होदि अवराधो।।"
उक्तं हि समयसारव्याख्यायां च
[ मुक्त्वा ] छोड़कर [ आराधनायां] आराधनामें [वर्तते] वर्तता है, [ सः ] वह (जीव) [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [ उच्यते ] कहलाता है, [ यस्मात् ] कारण कि वह [ प्रतिक्रमणमय: भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है।
टीका:-यहाँ आत्माकी आराधनामें वर्तते जीवको ही प्रतिक्रमणस्वरूप कहा है।
जो परमतत्त्वज्ञानी जीव निरंतर अभिमुखरूपसे (-आत्मसंमुखरूपसे) अटूट ( –धारावाही) परिणामसंतति द्वारा साक्षात् स्वभावस्थितिमें-आत्माकी आराधनामें –वर्तता है वह निरपराध है। जो आत्माके आराधन रहित है वह सापराध है; इसीलिये, निरवशेषरूपसे विराधन छोड़कर-ऐसा कहा है। जो परिणाम “विगतराध” अर्थात् राध रहित है वह विराधन है। वह (विराधन रहित-निरपराध) जीव निश्चयप्रतिक्रमणमय है, इसीलिये उसे प्रतिक्रमणस्वरूप कहा जाता है।
इसप्रकार ( श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसारमें (३०४ वी गाथा द्वारा) कहा है कि :
“[गाथार्थ:-] संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधित-यह शब्द एकार्थ हैं; जो आत्मा “ अपगतराध” अर्थात् राधसे रहित है वह आत्मा अपराध है।"
श्री समयसारकी ( अमृतचंद्राचार्यदेवकृत आत्मख्याति नामक) टीकामें भी (१८७ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :---
* राध = आराधना; प्रसन्नता; कृपा; सिद्धि; पूर्णता; सिद्ध करना वह; पूर्ण करना वह।
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