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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार १५३ तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः (अनुष्टुभ् ) "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन। अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन।।" तथा हि (मालिनी) इति सति मुनिनाथस्योच्चकैर्भेदभावे स्वयमयमुपयोगाद्राजते मुक्तमोहः। शमजलनिधिपूरक्षालितांहःकलंक: स खलु समयसारस्यास्य भेदः क एषः।। ११० ।। मोत्तूण वयणरयणं रागादीभाववारणं किच्चा। अप्पाणं जो झायदि तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं ।। ८३ ।। इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामकी टीकामें १३१ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि: “[श्लोकार्थ:-] जो कोई सिद्ध हुए हैं वे भेदविज्ञानसे सिद्ध हुए हैं; जो कोई बँधे हैं वे उसी के (भेदविज्ञानके ही) अभावसे बँधे हैं।" । १३१ । ____ और (इस ८२ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते है) : [ श्लोकार्थ:-] इसप्रकार जब मुनिनाथको अत्यंत भेदभाव (भेदविज्ञानपरिणाम ) होता है, तब वह (समयसार) स्वयं उपयोग होनेसे , मुक्तमोह ( मोह रहित) होता हुआ , शमजलनिधिके पूरसे ( उपशमसमुद्रके ज्वारसे) पापकलंकको धोकर, विराजता (-शोभता) है;---वह सचमुच , इस समयसारका कैसा भेद है! । ११० । रे वचनकी रचना छोड़ रागद्वेषका परित्यागकर । ध्याता निजात्मा जीव जो होता उसीको प्रतिक्रमण ।। ८३।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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