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तथा हि
( अनुष्टुभ् )
उत्सृज्य कायकर्माणि भावं च भवकारणम्। स्वात्मावस्थानमव्यग्रं कायोत्सर्गः स उच्यते ।।
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(अनुष्टुभ् ) अपरिस्पन्दरूपस्य परिस्पन्दात्मिका तनुः । व्यवहाराद्भवेन्मेऽतस्त्यजामि विकृतिं तनोः ।। ९५ ।।
घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया । चोत्तिसअदिसयजुत्ता अरिहंता एरिसा होंति ।। ७१ ।।
घनघातिकर्मरहिताः केवलज्ञानादिपरमगुणसहिताः । चतुस्त्रिंशदतिशययुक्ता अर्हन्त ईदृशा भवन्ति ।। ७९ ।।
भगवतोऽर्हत्परमेश्वरस्य स्वरूपाख्यानमेतत्।
आत्मगुणघातकानि घातिकर्माणि
“[ श्लोकार्थ :- ] कायक्रियाओंको तथा भवके कारणभूत ( विकारी) भावको छोड़ कर अव्यग्ररूपसे निज आत्मामें स्थित रहना, वह कायोत्सर्ग कहलाता है।
और (इस ७० वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
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हैं ] :
[ श्लोकार्थ:-] अपरिस्पंदात्मक ऐसे मुझे परिस्पंदात्मक शरीर व्यवहारसे है; इसलिये मैं शरीरकी विकृतिको छोड़ता हूँ । ९५ ।
गाथा ७९
अन्वयार्थः[ घनघातिकर्मरहिताः] घनघातीकर्म रहित, [ केवलज्ञानादिपरमगुणसहिताः ] केवलज्ञानादि परम गुणों सहित और [ चतुस्त्रिंशदतिशययुक्ताः ] चौंतीस अतिशय संयुक्त;–[ ईदृशा: ] ऐसे, [ अर्हन्तः ] अर्हत [ भवन्ति ] होते हैं।
टीका:-यह, भगवान अर्हत् परमेश्वरके स्वरूपका कथन है 1
[ भगवंत अर्हंत कैसे होते हैं ] (१) जो आत्मगुणोंके घातक घातिकर्म हैं और जो
चौतीस अतिशययुक्त, अरु घनघाति कर्म विमुक्त है । अर्हंत श्री कैवल्यज्ञानादिक परमगुण युक्त है ।। ७९ ।।
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