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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates व्यवहारचारित्र अधिकार तथा हि ( अनुष्टुभ् ) उत्सृज्य कायकर्माणि भावं च भवकारणम्। स्वात्मावस्थानमव्यग्रं कायोत्सर्गः स उच्यते ।। "" (अनुष्टुभ् ) अपरिस्पन्दरूपस्य परिस्पन्दात्मिका तनुः । व्यवहाराद्भवेन्मेऽतस्त्यजामि विकृतिं तनोः ।। ९५ ।। घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया । चोत्तिसअदिसयजुत्ता अरिहंता एरिसा होंति ।। ७१ ।। घनघातिकर्मरहिताः केवलज्ञानादिपरमगुणसहिताः । चतुस्त्रिंशदतिशययुक्ता अर्हन्त ईदृशा भवन्ति ।। ७९ ।। भगवतोऽर्हत्परमेश्वरस्य स्वरूपाख्यानमेतत्। आत्मगुणघातकानि घातिकर्माणि “[ श्लोकार्थ :- ] कायक्रियाओंको तथा भवके कारणभूत ( विकारी) भावको छोड़ कर अव्यग्ररूपसे निज आत्मामें स्थित रहना, वह कायोत्सर्ग कहलाता है। और (इस ७० वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते יג १३४ हैं ] : [ श्लोकार्थ:-] अपरिस्पंदात्मक ऐसे मुझे परिस्पंदात्मक शरीर व्यवहारसे है; इसलिये मैं शरीरकी विकृतिको छोड़ता हूँ । ९५ । गाथा ७९ अन्वयार्थः[ घनघातिकर्मरहिताः] घनघातीकर्म रहित, [ केवलज्ञानादिपरमगुणसहिताः ] केवलज्ञानादि परम गुणों सहित और [ चतुस्त्रिंशदतिशययुक्ताः ] चौंतीस अतिशय संयुक्त;–[ ईदृशा: ] ऐसे, [ अर्हन्तः ] अर्हत [ भवन्ति ] होते हैं। टीका:-यह, भगवान अर्हत् परमेश्वरके स्वरूपका कथन है 1 [ भगवंत अर्हंत कैसे होते हैं ] (१) जो आत्मगुणोंके घातक घातिकर्म हैं और जो चौतीस अतिशययुक्त, अरु घनघाति कर्म विमुक्त है । अर्हंत श्री कैवल्यज्ञानादिक परमगुण युक्त है ।। ७९ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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