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नियमसार
१३१
अत्र कायगुप्तिस्वरूपमुक्तम्।
कस्यापि नरस्य तस्यान्तरंगनिमित्तं कर्म, बंधनस्य बहिरंगहेतुः कस्यापि कायव्यापारः। छेदनस्याप्यन्तरंगकारणं कर्मोदयः, बहिरंगकारणं प्रमत्तस्य कायक्रिया। मारणस्याप्यन्तरङ्गहेतुरांतर्यक्षयः, बहिरङ्गकारणं कस्यापि कायविकृतिः। आकुंचनप्रसारणादिहेतु: संहरणविसर्पणादिहेतुसमुद्धातः। एतासां कायक्रियाणां निवृत्ति: कायगुप्तिरिति।
( अनुष्टुभ् ) मुक्त्वा कायविकारं यः शुद्धात्मानं मुहुर्मुहुः। संभावयति तस्यैव सफलं जन्म संसृतौ।। ९३ ।।
जा रायादिणियत्ती मणस्स जाणीहि तं मणोगुत्ती। अलियादिणियत्तिं वा मोणं वा होइ वइगुत्ती।।६९ ।।
[ कायक्रियानिवृत्तिः ] कायक्रियाओंकी निवृत्तिको [ कायगुप्तिः इति निर्दिष्टा ] कायगुप्ति कहा
है।
टीका:-यहाँ कायगुप्तिका स्वरूप कहा है।
किसी पुरुषको बंधनका अंतरंग निमित्त कर्म है, बंधनका बहिरंग हेतु किसीका कायव्यापार है; छेदनका भी अंतरंग कारण कर्मोदय है, बहिरंग कारण प्रमत्त जीवकी कायक्रिया है; मारनका भी अंतरंग हेतु आंतरिक (निकट) संबंधनका (आयुका) क्षय है, बहिरंग कारण किसीकी कायविकृति है; आकुंचन, प्रसारण आदि का हेतु संकोचविस्तारादिकके हेतुभूत समुद्घात है। इन कायक्रियाओंकी निवृत्ति वह कायगुप्ति है।
[अब ६८ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:-] कायविकारको छोड़कर जो पुनः पुनः शुद्धात्माकी संभावना ( सम्यक् भावना) करता है, उसीका जन्म संसारमें सफल है। ९३।
गाथा ६९ हो राग की निवृत्ति मनसे नियत मनगुप्ति वही । होवे असत्य-निवृत्ति अथवा मौन वच गुप्ति कही ।। ६९।।
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