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आध्यात्मिक भावोंको अपने अन्तरवेदनके साथ मिलाकर इस टीकामें स्पष्टरूपसे प्रगट किया है। इस टीकामें आनेवाले कलशरूप काव्य अत्यन्त मधुर हैं और अध्यात्ममस्ती तथा भक्तिरससे भरपूर है। अध्यात्मकविके रूपमें श्री पद्मप्रभमलधारिदेवका स्थान जैन साहित्यमें अति उच्च है। टीकाकार मुनिराजने गद्य तथा पद्यरूपमें परम पारिणामिक भावका तो खूब - खूब गान किया है। सम्पूर्ण टीका मानों परम पारिणामिक भावका और तदाश्रित मुनिदशाका एक महाकाव्य हो इसप्रकार मुमुक्षु हृदयोंको मुदित करती है। परम पारिणामिक भाव, सहज सुखमय मुनिदशा और सिद्ध जीवोंकी परमानन्दपरिणतिके प्रति भक्तिसे मुनिवरका चित्त मानों उमड़ पड़ता और उस उल्लासको व्यक्त करनेके लिये उनको शब्द अत्यन्त कम पड़ते होनेसे उनके मुखसे अनेक प्रसंगोचित उपमा अलंकार प्रवाहित हुए हैं। अन्य अनेक उपमाओंकी भाँति, मुक्ति, दीक्षा आदिको बारम्बार स्त्रीकी उपमा भी लेशमात्र संकोच बिना निःसंकोचरूपसे दी गई है वह आत्ममस्त महामुनिवरके ब्रह्मचर्यका अतिशय बल सूचित करती है। संसार दावानलके समान है और सिद्धदशा तथा मुनिदशा परम सहजानन्दमय है -- ऐसे भावके धारावही वातावरणका सम्पूर्ण टीकामें ब्रह्मनिष्ठ मुनिवरने अलौकिक रीति से सर्जन किया है और स्पष्टरूपसे दर्शाया है कि मुनियोंकी व्रत, नियम, तप, ब्रह्मचर्य, परिषहजय इत्यादिरूप कोई भी परिणति हठपूर्वक, खेदयुक्त, कष्टजनक या नरकादिके भयमूलक नहीं होती, किन्तु अन्तरंग आत्मिक वेदनसे होनेवाली परम परितृप्तिके कारण सहजानन्दमय होती है-- कि जिस सहजानन्दके पास संसारियोंके कनककामिनीजनित कल्पित सुख केवल उपहासमात्र और घोर दुःखमय भासित होते हैं। सचमुच मूर्तिमन्त मुनिपरिणति समान यह टीका मोक्षमार्गमें विचरनेवाले मुनिवरोंकी सहजानन्दमय परिणतिका तादृश चित्रण करती है। इस कालमें ऐसी यथार्थ आनन्दनिर्भर मोक्षमार्गकी प्रकाशक टीका मुमुक्षुओंको अर्पित करके टीकाकार मुनिवरने महान उपकार किया है।
श्री नियमसारमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवने १८७ गाथाएँ प्राकृतमें रची हैं। उन पर श्री पद्मप्रभमलधारिदेवने तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका लिखी है। ब्रह्मचारी श्री शीतलप्रसादजीने मूल गाथाओंका तथा टीकाका हिन्दी अनुवाद किया है । वि० सम्वत् १९७२में श्री जैनगन्थरत्नाकर कार्यालयकी ओरसे प्रकाशित हिन्दी नियमसारमें मूल गाथाएँ, संस्कृत टीका तथा ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी कृत हिन्दी अनुवाद प्रगट हुए थे। अब श्री जैन स्वाध्यायमन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ - ( सौराष्ट्र) से यह ग्रन्थ गुजरातीमें प्रकाशित हुआ है जिसमें मूल गाथाएँ, उनका गुजराती पद्यानुवाद, संस्कृत टीका और उस गाथा-टीकाके अक्षरश: गुजराती अनुवादका समावेश होता है । जहाँ, विशेष स्पष्टताकी आवश्यकता थी वहाँ ‘कौन्स' में अथवा ' फूटनोट' (टिप्पणी) द्वारा स्पष्टता की गई है। श्री जैनगन्थरत्नाकर कार्यालय द्वारा प्रकाशित नियमसारमें छपी हुई संस्कृत टीकामें जो अशुद्धियाँ थीं उनमेंसे अनेक अशुद्धियाँ हस्तलिखित प्रतियोंके आधार पर इसमें सुधार ली गई हैं। अब भी इसमें कहीं-कहीं अशुद्ध पाठ हो ऐसा लगता है, किन्तु हमें जो तीन हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त हुईं हैं उनमें शुद्ध पाठ न मिलने के कारण उन अशुद्धियों को नहीं सुधारा जा सका है। अशुद्ध पाठोंका अनुवाद करनेमें बड़ी सावधानी रखी गई है और पूर्वापर कथन तथा न्यायके साथ जो अधिकसे अधिक संगत हो ऐसा उन पाठोंका अनुवादन किया है।
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