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नियमसार
११५
"मज्झं परिग्गहो जदि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज। णादेव अहं जम्हा तम्हा ण परिग्गहो मज्झ।।''
तथा हि
(हरिणी) त्यजतु भवभीरुत्वाद्भव्यः परिग्रहविग्रहं निरुपमसुखावासप्राप्त्यै करोतु निजात्मनि। स्थितिमविचलां शर्माकारां जगज्जनदुर्लभां न च भवति महच्चित्रं चित्रं सतामसतामिदम्।।८० ।।
पासुगमग्गेण दिवा अवलोगंतो जुगप्पमाणं हि। गच्छइ पुरदो समणो इरियासमिदी हवे तस्स।।६१ ।।
प्रासुकमार्गेण दिवा अवलोकयन् युगप्रमाणं खलु। गच्छति पुरतः श्रमणः ईर्यासमितिर्भवेत्तस्य।। ६१ ।।
" [गाथार्थ:-] यदि परद्रव्य-परिग्रह मेरा हो तो मैं अजीवत्वको प्राप्त होऊँ। मैं तो ज्ञाता ही हूँ इसलिये ( परद्रव्यरूप) परिग्रह मेरा नहीं है।"
और (६० वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं)
[श्लोकार्थ:-] भव्य जीव भवभीरुताके कारण परिग्रहविस्तारको छोड़ो और निरुपम सुखके आवासकी प्राप्ति हेतु निज आत्मामें अविचल, सुखाकार ( सुखमयी) तथा जगतजनोंको दुर्लभ ऐसी स्थिति (स्थिरता) करो। और यह (निजात्मामें अचल सुखात्मक स्थिति करनेका कार्य) सत्पुरुषोंको कोई महा आश्चर्यकी बात नहीं है, असत्पुरुषोंको आश्चर्यकी बात है। ८०।।
गाथा ६१ अन्वयार्थ:-[ श्रमणः ] जो श्रमण [प्रासुकमार्गेण ] प्रासुक मार्ग पर [ दिवा] दिनमें [ युगप्रमाणं ] धुरा प्रमाण [ पुरतः ] आगे [ खलु अवलोकयन् ] देख कर [गच्छति ] चलता है [ तस्य ] उसे [ ईर्यासमितिः ] ईर्यासमिति [ भवेत् ] होती है।
* आवास = निवासस्थान; घर; आयतन।
मुनिराज चलते मार्ग दिनमें देख आगे की मही। प्रासुक धुरा जितनी, उन्हें ही समिति ईर्या है कही ।। ६१।।
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