SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरा अधिकार ] Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नोकर्मका स्वरूप और प्रवृत्ति तथा नामकर्मके उदयसे शरीर होता है वह द्रव्यकर्मवत् किंचित् सुख-दुःखका कारण है, इसलिये शरीर को नोकर्म कहते हैं । यहाँ नो शब्द ईषत् (अल्प) वाचक जानना । सो शरीर पुद्गलपरमाणुओं का पिण्ड है और द्रव्यइन्द्रिय, द्रव्यमन, श्वासोच्छ्वास तथा वचन ये भी शरीर ही के अंग हैं; इसलिये उन्हें भी पुद्गलपरमाणुओंके पिण्ड जानना । इसप्रकार शरीरके और द्रव्यकर्मके सम्बन्ध सहित जीवके एकक्षेत्रावगाहरूप बंधान होता है। सो शरीरके जन्म समय से लेकर जितनी आयु की स्थिति हो उतने काल तक शरीर का संबन्ध रहता है। तथा आयु पूर्ण होने पर मरण होता है तब उस शरीरका संबन्ध छूटता है, शरीर आत्मा अलग-अलग हो जाते हैं। तथा उसके अनंतर समयमें अथवा दूसरे, तीसरे, चौथे समय जीवकर्मोदय के निमित्तसे नवीन शरीर धारण करता है; वहाँ भी अपनी आयुपर्यंत उसी प्रकार संबन्ध रहता है, फिर मरण होता है तब उससे संबन्ध छूटता है । इसी प्रकार पूर्व शरीर का छोड़ना और नवीन शरीर ग्रहण करना अनुक्रम करता है। हुआ [ ३१ तथा यह आत्मा यद्यपि असंख्यातप्रदेशी है तथापि संकोच - विस्तार शक्तिसे शरीर प्रमाण ही रहता है; विशेष इतना कि समुद्घात होने पर शरीर से बाहर भी आत्मा के प्रदेश फैलते हैं और अंतराल समय में पूर्व शरीर छोड़ा था उस प्रमाण रहते हैं। 1 तथा इस शरीर के अंगभूत द्रव्यइन्द्रिय और मन उनकी सहायतासे जीवके जानपने की प्रवृत्ति होती है। तथा शरीरकी अवस्था के अनुसार मोहके उदयसे जीव सुखी - दुःखी होता है। तथा कभी तो जीवकी इच्छाके अनुसार शरीर प्रवर्तता है, कभी शरीर की अवस्था के अनुसार जीव प्रवर्तता है; कभी जीव अन्यथा इच्छारूप प्रवर्तता है, पुद्गल अन्यथा अवस्थारूप प्रवर्तता है । इस प्रकार इस नोकर्म की प्रवृत्ति जानना । नित्यनिगोद और इतरनिगोद वहाँ अनादि से लेकर प्रथम तो इस जीवके नित्यनिगोदरूप शरीरका संबन्ध पाया जाता है, वहाँ नित्यनिगोद शरीरको धारण करके आयु पूर्ण होने पर मरकर फिर नित्यनिगोद शरीरको धारण करता है, फिर आयु पूर्ण कर मरकर नित्यनिगोद शरीर ही धारण करता है। इसी प्रकार अनंतानंत प्रमाण सहित जीवराशि है सो अनादि से वहाँ ही जन्म-मरण किया करती है। Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy