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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३०] [मोक्षमार्गप्रकाशक कर्मत्वपनेका अभाव होता है, वे पुद्गल अन्य पर्यायरूप परिणमित होते हैं इसका नाम सविपाक निर्जरा है। इस प्रकार प्रति समय उदय होकर कर्म खिरते हैं। कर्मत्वपनेकी नास्ति होने के पीछे वे परमाणु उसी स्कंध में रहें या अलग हो जायें - कुछ प्रयोजन नहीं रहता। यहाँ इतना जानना की :- इस जीव को प्रति समय अनंत परमाणु बंधते हैं; वहाँ एक समयमें बंधे हुए परमाणु अबाधाकाल को छोड़कर अपनी स्थिति के जितने समय हों उनमें क्रम से उदय में आते हैं। तथा बहुत समयोंमें बंधे परमाणु जोकि एक समयमें उदय आने योग्य हैं वे इकट्ठे होकर उदय में आते हैं। उन सब परमाणुओंका अनुभाग मिलकर जितना अनुभाग हो उतना फल उस काल में उत्पन्न होता है। तथा अनेक समयोंमें बंधे परमाणु बंधसमयसे लेकर उदयसमय पर्यन्त कर्मरूप अस्तित्वको धारण कर जीवसे संबन्धरूप रहते हैं। इस प्रकार कर्मोंकी बन्ध-उदय-सत्तारूप अवस्था जानना। वहाँ प्रतिसमय एक समयप्रबद्धमात्र परमाणु बँधते हैं तथा एक समयप्रबद्धमात्र की निर्जरा होती है। डेढ़-गुण हानिसे गुणित समयप्रबद्धमात्र सदाकाल सत्ता में रहते हैं। सो इन सबका विशेष आगे कर्म अधिकारमें लिखेंगे वहाँ से जानना। गव्यकर्म व भावकर्म का स्वरूप और प्रवृत्ति तथा इस प्रकार यह कर्म है सो परमाणुरूप अनंत पुद्गलद्रव्यों से उत्पन्न किया हुआ कार्य है, इसलिये उसका नाम द्रव्यकर्म है। तथा मोहके निमित्तसे मिथ्यात्वक्रोधादिरूप जीवके परिणाम हैं वह अशुद्धभावसे उत्पन्न किया हुआ कार्य है, इसलिये इसका नाम भाव कर्म है। द्रव्यकर्म के निमित्त से भावकर्म होता है और भावकर्म के निमित्तसे द्रव्यकर्मका बन्ध होता है। तथा द्रव्यकर्मसे भावकर्म और भावकर्मसे द्रव्यकर्म - इसी प्रकार परस्पर कारणकार्यभावसे संसारचक्रमें परिभ्रमण होता है। इतना विशेष जानना की :- तीव्र-मंद बन्ध होने से या संक्रमणआदि होने से या एक काल में बंधे अनेक काल में या अनेककाल में बंधे एककाल में उदय आनेमें किसी काल में तीव्र उदय आये तब तीव्रकषाय हो, तब तीव्र ही नवीन बंध हो; तथा किसी काल में मंद उदय आये तब मंद कषाय हो, तब मंद ही बंध हो। तथा उन तीव्र-मंदकषायों ही के अनुसार पूर्व बँधे कर्मोंका भी संक्रमणादिक हो तो हो। इस प्रकार अनादिसे लगाकर धाराप्रवाहरूप द्रव्यकर्म और भावकर्मकी प्रवृत्ति जानना। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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