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दूसरा अधिकार ]
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एक बंधान होनेकी शक्ति होती है, उसका नाम योग है। उसके निमित्त से प्रति समय कर्म रूप होने योग्य अनन्त परमाणुओं का ग्रहण होता है। वहाँ अल्पयोग हो तो थोड़े परमाणुओंका ग्रहण होता है और बहुत योग हो तो बहुत परमाणुओंका ग्रहण होता है। तथा एक समय में जो पुद्गलपरमाणु ग्रहण करे उनमें ज्ञानावरणादि मूल प्रकृतियोंका और उनकी उत्तरप्रकृतियोंका जैसे सिद्धांतमें कहा वैसे बटवारा होता है। उस बटवारेके अनुसार परमाणु उन प्रकृतियोंरूप स्वयं ही परिणमित होते हैं।
विशेष इतना कि योग दो प्रकारका हैं - शुभयोग, अशुभयोग। वहाँ धर्मके अंगोंमें मन-वचन-कायकी प्रवृति होनेपर तो शुभयोग होता है और अधर्मके अंगोंमें उनकी प्रवृत्ति होनेपर अशुभयोग होता है। वहाँ शुभयोग हो या अशुभयोग हो, सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना घातियाकर्मोंकी तो सर्व प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता ही रहता है। किसी समय किसी भी प्रकृतिका बन्ध हुए बिना नहीं रहता। इतना विशेष है कि मोहनीयके हास्य-शोक युगलमें, रति-अरति युगलमें, तीनों वेदोंमें एक कालमें एक-एक ही प्रकृति बन्ध होता है।
___तथा अघातियाकर्मों की प्रकृतियोंमें शुभयोग होनेपर सातावेदनीय आदि पुण्यप्रकृतियों का बन्ध होता है, अशुभयोग होने पर असातावेदनीय आदि पापप्रकृतियोंका बन्ध होता है, मिश्रयोग होनेपर कितनी ही पुण्यप्रकृतियोंका तथा कितनी ही पापप्रकृतियों का बन्ध होता
इस प्रकार योगके निमित्तसे कर्मोंका आगमन होता है। इसलिये योग है वह आस्रव है। तथा उसके द्वारा ग्रहण हुऐ कर्मपरमाणुओंका नाम प्रदेश है, उनका बन्ध हुआ और उनमें मूल-उत्तर प्रकृतियोंका विभाग हुआ; इसलिये योगों द्वारा प्रदेशबन्ध तथा प्रकृतिबन्धका होना जानना।
कषायसे स्थिति और अनुभाग बन्ध
तथा मोहके उदयसे मिथ्यात्व क्रोधादिक भाव होते हैं ,उन सबका नाम सामान्यतः कषाय है। उससे उन कर्मप्रकृतियोंकी स्थिति बँधती है। वहाँ जितनी स्थिति बँधे उसमें अबाधाकालको छोड़कर पश्चात् जबतक बँधी स्थिति पूर्ण हो तबतक प्रति समय उस प्रकृति का उदय आता ही रहता है। वहाँ देव-मनुष्य-तिर्यंचायुके बिना अन्य सर्व घातियाअघातिया प्रकृतियोंका, अल्प कषाय होनेपर थोड़ा स्थितिबंध होता है, बहुत कषाय होने पर बहुत स्थितिबंध होता है। इन तीन आयुका अल्प कषायसे बहुत और बहुत कषायसे अल्प स्थितिबंध जानना।
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