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[मोक्षमार्गप्रकाशक
कर्मबन्धनका निदान
सो यहाँ प्रथम ही कर्मबंधन का निदान बतलाते हैं :
कर्मबंधन होनेसे नाना औपाधिक भावोंमें परिभ्रमणपना पाया जाता है, एकरूप रहना नहीं होता; इसलिये कर्मबंधन सहित अवस्थाका नाम संसार-अवस्था है। इस संसारअवस्थामें अनन्तानंत जीवद्रव्य हैं वे अनादि ही से कर्मबंधन सहित हैं। ऐसा नहीं है कि पहले जीव न्यारा था और कर्म न्यारा था, बाद में इनका संयोग हुआ। तो कैसे हैं ? – जैसे
गरि आदि अकत्रिम स्कंधोंमें अनंत पदगलपरमाण अनादिसे एकबंधनरूप हैं. फिर उनमेंसे कितने ही परमाणु भिन्न होते हैं, कितने ही नये मिलते हैं, इस प्रकार मिलना-बिछुड़ना होता रहता है। उसी प्रकार इस संसारमें एक जीवद्रव्य और अनंत कर्मरूप पुद्गलपरमाणु उनका अनादिसे एकबंधनरूप है, फिर उनमें कितने ही कर्मपरमाणु भिन्न होते हैं, कितने ही नये मिलते हैं। इस प्रकार मिलना - बिछुड़ना होता रहता है।
कर्मों के अनादिपनेकी सिद्धि
यहाँ प्रश्न है कि – पुद्गलपरमाणु तो रागादिकके निमित्तसे कर्मरूप होते हैं, अनादि कर्मरूप कैसे हैं ? समाधान :- निमित्त तो नवीन कार्य हो उसमें ही सम्भव है, अनादि अवस्थामें निमित्तका कुछ प्रयोजन नहीं है। जैसे - नवीन पुद्गलपरमाणुओंका बंधान तो स्निग्ध-रूक्ष गुण के अंशों ही से होता है और मेरुगिरि आदि स्कंधों में अनादि पुद्गलपरमाणुओं का बंधान है, वहाँ निमित्त का क्या प्रयोजन है ? उसी प्रकार नवीन परमाणुओं का कर्मरूप होना तो रागादिक ही से होता है और अनादि पुद्गलपरमाणुओंकी कर्मरूप ही अवस्था है, वहाँ निमित्तका क्या प्रयोजन है ? तथा यदि अनादिमें भी निमित्त मानें तो अनादिपना रहता नहीं; इसलिये कर्म का बंध अनादि मानना। सो तत्त्वप्रदीपिकाप्रवचनासार शास्त्र की व्याख्या में जो सामान्यज्ञेयाधिकार है वहाँ कहा है :रागादिक का कारण तो द्रव्यकर्म है और द्रव्यकर्मका कारण रागादिक हैं। तब वहाँ तर्क किया है कि - ऐसे तो इतरेतराश्रयदोष लगता है - वह उसके आश्रित, वह उसके आश्रित कहीं रुकाव नहीं है। तब उत्तर ऐसा दिया है :
नैवं अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्मसम्बन्धस्य तत्र हेतुत्वेनोपादानात् ।
अर्थ :- इस प्रकार इतरेतराश्रयदोष नहीं है; क्योंकि अनादिका स्वयंसिद्ध द्रव्यकर्म का सम्बन्ध है उसका वहाँ कारणपने से ग्रहण किया है।
* न हि अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्माभिसम्बद्धस्यात्मनः प्राक्तनद्रव्यकर्मणस्तत्र हेतुत्वेनोपादानात् ।
- प्रवचनसार टीका , गाथा १२१
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