SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . दूसरा अधिकार संसार अवस्थाका स्वरूप . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . दोहा - मिथ्याभाव अभावतें, जो प्रगटै निजभाव । सो जयवंत रहौ सदा, यह ही मोक्ष उपाव ।। अब इस शास्त्र में मोक्षमार्ग का प्रकाश करते हैं । वहाँ बन्धन से छूटने का नाम मोक्ष है । इस आत्मा को कर्म का बन्धन है और उस बन्धन से आत्मा दुःखी हो रहा है, तथा इसके दुःख दूर करने ही का निरन्तर उपाय भी रहता है, परन्तु सच्चा उपाय प्राप्त किये बिना दुःख दूर नहीं होता और दुःख सहा भी नहीं जाता; इसलिये यह जीव व्याकुल हो रहा है। इस प्रकार जीव को समस्त दुःख का मूलकारण कर्मबन्धन है । उसके अभावरूप मोक्ष है वही परमहित है, तथा उसका सच्चा उपाय करना वही कर्तव्य है; इसलिये इस ही का इसे उपदेश देते हैं । वहाँ, जैसे वैद्य है सो रोग सहित मनुष्य को प्रथम तो रोग का निदान बतलाता है कि इस प्रकार यह रोग हुआ है; तथा उस रोग के निमित्त से उसके जो-जो अवस्था होती हो वह बतलाता है । उससे उसको निश्चय होता है कि मुझे ऐसा ही रोग है। फिर उस रोग को दूर करने का उपाय अनेक प्रकार से बतलाता है और उस उपाय की उसे प्रतीति कराता है - इतना तो वैद्यका बतलाना है । तथा यदि वह रोगी उसका साधन करे तो रोग से मुक्त होकर अपने स्वभावरूप प्रवर्ते, यह रोगी का कर्तव्य है। उसी प्रकार यहाँ कर्मबंधनयुक्त जीवको प्रथम तो कर्मबन्धनका निदान बतलाते हैं कि ऐसे यह कर्मबंधन हुआ है; तथा उस कर्मबंधनके निमित्तसे इसके जो-जो अवस्था होती है वह बतलाते हैं । उससे जीव को निश्चय होता है कि मुझे ऐसा ही कर्मबंधन है । तथा उस कर्मबंधन के दूर होनेका उपाय अनेक प्रकार से बतलाते हैं और उस उपाय की इसे प्रतीति कराते हैं - इतना तो शास्त्र का उपदेश है । यदि यह जीव उसका साधन करे तो कर्मबन्धन से मुक्त होकर अपने स्वभावरूप प्रवर्ते, यह जीव का कर्त्तव्य है । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy