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लोकभाषा काव्यशैलीमें 'रामचरितमानस' लिख कर महाकवि तुलसीदास ने जो काम किया, वही काम उनके दो सौ वर्ष बाद गद्य में जिन अध्यात्म को लेकर पंडित टोडरमलजी ने किया। इसलिये उन्हें आचार्य कल्प कहा गया। ये रीतिकाल में आवश्य हुए, पर इनका संबंध रीतिकाव्यसे दूर का भी नहीं है और न यह उपाधि 'काव्यशास्त्रीय आचार्य' की सूचक है। इनका संबंध तो उन महान दिगम्बराचार्यों से है, जिन्होंने जैन साहित्य की वृद्धि में अभूतपूर्व योगदान किया है। उनके समान सम्मान देने के लिये इन्हें 'आचार्यकल्प' कहा जाता है। इनका काम जैन आचार्योंसे किसी भी प्रकार कम नहीं है, किन्तु जैन परम्परामें 'आचार्यपद' नग्न दिगम्बर साधु को ही प्राप्त होता है, अत: इन्हें आचार्य न कह कर 'आचार्यकल्प' कहा गया।
जगत के सभी भौतिक द्वन्द्वोंसे दूर रहने वाले एवं निरंतर आत्मसाधना व साहित्यसाधनारत इस महामानव को जीवन की मध्य वय में ही साम्प्रदायिक विद्वेषका शिकार होकर जीवनसे हाथ धोना पड़ा।
प्रतिभाओंका लीक पर चलना कठिन होता है, पर ऐसी प्रतिभाएँ बहुत कम होती हैं, जो लीक छोड़कर चलें और भटक न जायें। पंडित टोडरमलजी भी उन्हींमेंसे एक हैं जो लीक छोड़कर चलें, भटके नहीं।
प्रस्तुत ग्रंथ मोक्षमार्गप्रकाशक आद्योपान्त मूलतः पठनीय एवं मननीय है। इसका अध्ययन-मनन प्रत्येक आत्माभिलाषी के लिये परम कल्याण कारक है। पंडितजी ने स्वयं इसके प्रत्येक अधिकार के अंत में इस बात का उल्लेख किया है। सहज उपलब्ध तत्त्वज्ञान के सुअवसर को योंहीं खो देने वालोंको लक्ष्य करके उन्होंने लिखा है :
“ जिस प्रकार बड़े दरिद्रिको अवलोकनमात्र चिंतामणिकी प्राप्ति हो और वह अवलोकन न करे, तथा जैसे कोढ़ीको अमृत-पान कराये और वह न करे, उसीप्रकार संसार पीड़ित जीवको सुगम मोक्षमार्ग के उपदेश का निमित्त बने और वह अभ्यास न करे तो उसके अभाग्य की महिमा हमसे तो नहीं हो सकती। उसकी होनहार ही का विचार करने पर अपनेको समता आती है।” (पृष्ठ २०)
पंडितजी के इन्हीं प्रेरणाप्रदशब्दोंके साथ हम विराम लेते हैं।
- (डॉ०) हुकमचन्द भारिल्ल
जयपुर, दिनांक २१ जनवरी, १९७४ ई० [संशोधन : १ मई, १९७८ ई०]
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