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उनकी शैलीकी प्रमुख विशेषता यह है कि उन्होंने अधिकांश आगम-प्रमाण शंकाकारके मुखमें रखे हैं। उनका शंकाकार प्रायः प्रत्येक शंका आर्षवाक्य प्रस्तुत करके सामने रखता है और समाधान कर्ता आर्षवाक्योंका अपेक्षाकृत कम प्रयोग करता है और अनुभूतिजन्य युक्तियों और उदाहरणों द्वारा उसकी जिज्ञासा शान्त करता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि पंडित टोडरमलजी न केवल टीकाकार थे बल्कि अध्यात्म के मौलिक विचारक भी थे। उनका यह चिंतन समाज को तत्कालीन परिस्थितियों और बढ़ते हुए अध्यात्म शिथिलाचार के संदर्भ में एक दम सटीक है। इसके पर्व ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जिसमें अभिव्यिक्तका माध्यम तात्कालीन प्रचलित लोकभाषा के गद्य को बनाया गया हो और जो इतना प्रांजल हो। वे यह अच्छी तरह समझ चुके थे कि बेलाग और मौलिक चिंतन के भार को पद्य की बजाय गद्य ही वहन कर सकता है। इसप्रकार ब्रजभषा गद्यके ये प्रथम शैलीकार सिद्ध होते हैं। मूलभषा ब्रज होते हुए भी उसमें खड़ी बोली का खड़ापन भी है, साथ ही उसमें स्थानीय रंगत भी है।
वे विशुद्ध आत्मवादी विचारक थे। उन्होंने उन सभी विचार धाराओं पर तीखा प्रहार किया जो आध्यात्मिकता के विपरीत थीं। आचार्य कुन्दकुन्दके समय जो विशुद्ध आत्मवादी आंदोलन की लहर उठी थी। वे उसके अपने युग के सर्वोत्तम व्याख्याकार थे।
आध्यात्मिकता के प्रति उनकी रुचि और निष्ठा का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उन्होंने लगभग एक लाख श्लोक प्रमाण गद्य लिखा। सादगी, आध्यात्मिक चिंतन, लेखन और स्वाभिमान उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषताएँ हैं। वे अपने युग की जैन आध्यात्मिक विचारधाराओंके ज्योतिकेन्द्र थे। आध्यात्मिकता उनके लिये अनुभूतिमूलक चिन्तन है। चारों अनुयोगोंके अध्ययन के सम्बन्धमें विचार करते हुए उन्होंने आध्यात्मिक अध्ययन पर सबसे अधिक बल दिया है।
आध्यात्मिक चिंतन की ऐसी अनभतिमलक सहज लोकाभिव्यक्ति, वह भी गद्य में, पंडितजीका बहुत बड़ा प्रदेय है। आध्यात्मिक चिंतन की अभिव्यक्तिके लिये गद्य का प्रवर्तक, व्यवहार और निश्चय व प्रवृत्ति और निवृत्तिका संतुलनकर्ता, धार्मिक आडम्बर और साम्प्रदायिक कट्टरताओं की तर्कसे धज्जियाँ उड़ा देने वाला, निस्पृही और आत्मनिष्ठ गद्यकार इसके पूर्व हिन्दीमें नहीं हुआ। उनका गद्य लोकोभिव्यक्ति और आत्माभिव्यक्तिका सुन्दर समन्वय है। दार्शनिक चिंतन ऐसी सहज गद्यात्मक अभिव्यक्ति कि जिसमें गद्यकारका व्यक्तित्व खुलकर झलक उठे, इसके पूर्व विरल है।
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