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परिशिष्ट ४
उपादान-निमित्तकी चिट्ठी
[कविवर पं० बनारसीदासजी लिखित]
प्रथम ही कोई पूछता है कि निमित्त क्या, उपादान क्या ?
उसका विवरण – निमित्त तो संयोगरूप कारण, उपादान वस्तु की सहज शक्ति।
उसका विवरण - एक द्रव्यार्थिक निमित्त-उपादान, एक पर्यायार्थिक निमित्तउपादान।
उसका विवरण - द्रव्यार्थिक निमित्त-उपादान गुणभेदकल्पना, पर्यायार्थिक निमित्तउपादान परयोगकल्पना। उसकी चौभंगी।
प्रथम ही गुणभेदकल्पना की चौभंगी का विस्तार कहता हूँ। सो किस प्रकार ? इसप्रकार सुनो - जीवद्रव्य, उसके अनंत गुण, सब गुण असहाय स्वाधीन सदाकाल। उनमें दो गुण प्रधान मुख्य स्थापित किये; उसपर चौभंगी का विचार -
एकतो जीव का ज्ञानगुण, दूसरा जीवका चारित्रगुण। ये दोनोंगुण शुद्धरूप भाव जानने, अशुद्धरूप भी जानने, यथायोग्य स्थानक मानने। उसका विवरण - इन दोनों कि गति न्यारी-न्यारी, शक्ति न्यारी-न्यारी, जाति न्यारी-न्यारी, सत्ता न्यारी-न्यारी।
उसका विवरण – ज्ञानगुण की तो ज्ञान-अज्ञानरूप गति, स्व-पर प्रकाशक शक्ति, ज्ञानरूप तथा मिथ्यारूप जाति, द्रव्यप्रमाण सत्ता; परन्तु एक विशेष इतना - कि ज्ञानरूप जाति का नाश नहीं है. मिथ्यात्वरूप जाति का नाश सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होने पर; - यह तो ज्ञानगुण का निर्णय हुआ।
अब चारित्रगुणका विवरण कहते हैं – संक्लेश विशुद्धरूप गति, थिरता-अस्थिरता शक्ति , मंद-तीव्ररूप जाति , द्रव्यप्रमाण सत्ता; परन्तु एक विशेष कि मन्दताकी स्थिति चौदहवें गुणस्थान पर्यंत है, तीव्रताकी स्थिति पाँचवें गुणस्थान पर्यंत है।
अब तो दोनोंका गुणभेद न्यारा-न्यारा किया। अब इनकी व्यवस्था - न ज्ञान चारित्र के आधीन है, न चारित्र ज्ञान के आधीन है; दोनों असहायरूप हैं। यह तो मर्यादाबंध है।
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