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(१३) ग्वालेने मुनिको अग्निसे तपाया ------ ग्वाला अविवेकी था, करुणा से यह कार्य
किया, इसलिये उसकी प्रशंसा की है; परन्तु इस छल से औरों को धर्मपद्धतिमें जो विरुद्ध हो वह कार्य करना योग्य नहीं है। ( पृष्ठ २७४)
(१४) देखो, तत्त्वविचार की महिमा ! तत्त्वविचार रहित देवादिक की प्रतीति करे, बहुत
शास्त्रों का अभ्यास करे, व्रतादिक पाले, तपश्चरण आदि करे, उसको तो सम्यक्त्व होने का अधिकार नहीं; और तत्त्वविचारवाला इसके बिना भी सम्यक्त्व का अधिकारी होता है। (पृष्ठ २६०)
पंडित टोडरमलजीने मोक्षमार्गमें वीतरागताको सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनोंकी परिभाषा करते हुए उन्होंने निष्कर्ष रूप में वीतरागताको प्रमुख सथान दिया है। विस्तृत विश्लेषण करनेके बाद वे लिखते हैं :
“इसलिये बहुत क्या कहें – जिसप्रकारसे रागादि मिटानेका श्रद्धान हो वही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, जिसप्रकार से रागादि मिटनेका जानना हो वही जानना सम्यग्ज्ञान है, तथा जिसप्रकार से रागादि मिटें वही आचरण सम्यक्चारित्र है; ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है। " (पृष्ठ २१३)
पंडित टोडरमलजीका पद्य साहित्य यद्यपि सीमित है, फिर भी उसमें जो भी है उनके कवि-हृदय को समझानेके लिये पर्याप्त है। उनके पद्योंमें विषयकी उपादेयता, स्वानुभूति की महत्ता, जिन और जिन-सिद्धान्त परम्पराका महत्त्व आदि बातोंका रुचिपूर्ण शैली में अलंकृत वर्णन है। बानगीके तौर पर एक दो अलंकृत छन्द प्रस्तुत हैं :
गोमुत्रिका बन्ध व चित्रालंकार -
मैं नमों नगन जैन जन ज्ञान ध्यान धन लीन । मैन मान बिन गान घन एन हीन तन छीन ।।
इसे गोमुत्रिका बन्धमें इसप्रकार रखेंगे :
मैं
मों ग जै
ज
ज्ञा
ध्या ध ली
मैं
मा
बि
दा
घ
ए
ही
त
छी
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