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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३४२] [रहस्यपूर्ण चिट्ठी तो इसप्रकार केवल व्यवहारसम्यक्त्वसे सम्यक्त्वी नाम नहीं पाता; इसलिये स्व-पर भेदविज्ञानसहित जो तत्त्वार्थश्रद्धान हो उसी को सम्यक्त्व जानना। तथा ऐसा सम्यक्त्वी होनेपर जो ज्ञान पंचेन्द्रिय व छठे मनके द्वारा क्षयोपशमरूप मिथ्यात्वदशामें कुमति-कुश्रुतिरूप हो रहा था वही ज्ञान अब मति-श्रुतरूप सम्यग्ज्ञान हुआ। सम्यक्त्वी जितना कुछ जाने वह जानना सर्व सम्यग्ज्ञानरूप है। यदि कदाचित् घट-पटादिक पदार्थोंको अयथार्थ भी जाने तो वह आवरणजनित औदायिक अज्ञान भाव है। जो क्षयोपशमरूप प्रगट ज्ञान है वह तो सर्व सम्यग्ज्ञान ही है, क्योंकि जाननेमें विपरीतरूप पदार्थों को नहीं साधता। सो यह सम्यग्ज्ञान केवलज्ञानका अंश है; जैसे थोड़ा-सा मेघपटल विलय होने पर कुछ प्रकाश प्रगट होता है वह सर्व प्रकाश का अंश है। जो ज्ञान मति-श्रुतरूप हो प्रवर्त्तता है वही ज्ञान बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञानरूप होता है; सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा तो जाति एक है। तथा इस सम्यक्त्वीके परिणाम सविकल्प तथा निर्विकल्परूप होकर दो प्रकार प्रवर्त्तते हैं। वहाँ जो परिणाम विषय-कषायादिरूप व पूजा, दान, शास्त्राभ्यासादिकरूप प्रवर्त्तता है उसे सविकल्परूप जानना। ___ यहाँ प्रश्न :- शुभाशुभरूप परिणमित होते हुए सम्यक्त्वका अस्तित्व कैसे पाया जाय? समाधान :- जैसे कोई गुमाश्ता सेठके कार्यमें प्रवर्त्तता है, उस कार्यको अपना भी कहता है, हर्ष-विषादको भी प्राप्त होता है, उस कार्यमें प्रवर्त्तते हुए अपनी और सेठ की जुदाई का विचार नहीं करता; परन्तु अंतरंग श्रद्धान ऐसा है कि यह मेरा कार्य नहीं है। ऐसा कार्य करता गुमाश्ता साहूकार है। यदि वह सेठके धन को चुरा कर अपना माने तो गुमाश्ता चोर होय। उसीप्रकार कर्मोदयजनित शुभाशुभरूप कार्यको कर्त्ता हुआ तद्रूप परिणमित हो; तथापि अंतरंगमें ऐसा श्रद्धान है कि यह कार्य मेरा नहीं है। यदि शरीराश्रित व्रत-संयमको भी अपना माने तो मिथ्यादृष्टि होय। सो ऐसे सविकल्प परिणाम होते हैं। अब सविकल्पहीके द्वारा निर्विकल्प परिणाम होनेका विधान कहते हैं : वही सम्यक्त्वी कदाचित् स्वरूप ध्यान करनेको उद्यमी होता है, वहाँ प्रथम भेदविज्ञान स्वपरका करे; नोकर्म-द्रव्यकर्म-भावकर्मरहित केवल चैतन्य-चमत्कारमात्र अपना स्वरूप जाने; पश्चात् परका भी विचार छूट जाय , केवल स्वात्मविचार ही रहता है; वहाँ अनेक Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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