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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३३२] [ मोक्षमार्गप्रकाशक फिर प्रश्न :- कितने ही शास्त्रोंमें लिखा है कि आत्मा है वही निश्चयसम्यक्त्व है और सर्व व्यवहार है सो किस प्रकार है ? समाधान :- विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान हुआ सो आत्मा ही का स्वरूप है, वहाँ अभेदबुद्धिसे आत्मा और सम्यक्त्व में भिन्नता नहीं है इसलिये निश्चयसे आत्मा ही को सम्यक्त्व कहा। अन्य-सर्व सम्यक्त्वको निमित्तमात्र हैं व भेद-कल्पना करने पर आत्मा और सम्यक्त्वके भिन्नता कही जाती है; इसलिये अन्य सर्व व्यवहार कहे हैं - ऐसा जानना। इस प्रकार निश्चयसम्यक्त्व और व्यवहारसम्यक्त्वसे सम्यक्त्व के दो भेद हैं। तथा अन्य निमित्तादि अपेक्षा आज्ञानसम्यक्त्वादि सम्यक्त्वके दस भेद किये हैं। वह आत्मानुशासनमें कहा है : आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्तारार्थाभ्यां भवमवपरमावादिगाढे च ।।११।। अर्थ :- जिनआज्ञासे तत्त्वश्रद्धान हुआ हो सो आज्ञासम्यक्त्व है। यहाँ इतना जानना - 'मुझको जिनआज्ञा प्रमाण है', इतना ही श्रद्धान सम्यक्त्व नहीं है। आज्ञा मानना तो कारणभूत है। इसीसे यहाँ आज्ञासे उत्पन्न कहा है। इसलिये पहले जिनआज्ञा मानने से पश्चात् जो तत्त्वश्रद्धान हुआ सो आज्ञासम्यक्त्व है। इसीप्रकार निर्ग्रन्थ मार्ग के अवलोकन से तत्त्वश्रद्धान हो सो मार्गसम्यक्त्व है ....... इसप्रकार आठ भेद तो कारण अपेक्षा किये। तथा श्रुतकेवली के जो तत्त्वश्रद्धान है उसे अवगाढ़सम्यक्त्व कहते हैं। केवलज्ञानीके जो तत्त्वश्रद्धान है उसको परमावगाढ़सम्यक्त्व कहते हैं। - ऐसे दो भेद ज्ञान के सहकारीपने की अपेक्षा किये। इस प्रकार सम्यक्त्व के दस भेद किये। - मार्गसम्यक्त्वके बाद यहाँ पंडितजी की हस्तलिखित प्रति में छह सम्यक्त्वका वर्णन करने के लिये तीन पंक्तियोंका स्थान छोड़ा गया है, किन्तु वे लिख नहीं पाये। यह वर्णन अन्य ग्रन्थों के अनुसार दिया जाता है : [तथा उत्कृष्ट पुरुष तीर्थंकरादि उनके पुराणोंके उपदेश से उत्पन्न जो सम्यग्ज्ञान उससे उत्पन्न आगम समुद्र में प्रवीण पुरुषोंके उपदेशादिसे हुई जो उपदेश दृष्टि सो उपदेशसम्यक्त्व है। मुनि के आचरण के विधान को प्रतिपादन करने वालाजो आचारसूत्र, उसे सुनकर जो श्रद्धान करना हो उसे भले प्रकार सूत्रदृष्टि कही गयी है, यह सूत्रसम्यक्त्व है। तथा बीज जो गणितज्ञान को कारण उनके द्वारा दर्शनमोह के अनुपम उपशमके बलसे, दुष्कर है जानने की गति जिसकी ऐसा पदार्थों का समुह, उसकी हुई है उपलब्धी अर्थात् श्रद्धानरूप परिणति जिसके , ऐसा जो करणानुयोगका ज्ञानी भव्य , उसके बीज दृष्टि होती है, वह बीजसम्यक्त्व जानना। तथा पदार्थोंको संक्षेपपने से जानकर जो श्रद्धान हुआ सो भली संक्षेप दृष्टि है, यह संक्षेपसम्यक्त्व जानना। द्वादशांगवाणी को सुनकर की गई जो रुचि-श्रद्धान उसे हे भव्य, तू विस्तारदृष्टि जान, यह विस्तारसम्यक्त्व है। तथा जैनशास्त्रके वचन के सिवा किसी अर्थ के निमित्तसे हुई सो अर्थ दृष्टि है, यह अर्थसम्यक्त्व जानना।] Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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