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________________ नौवाँ अधिकार ] Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इस प्रकार एक ही कालमें दोनों सम्यक्त्व पाये जाते हैं। तथा मिथ्यादृष्टि जीवके देव-गुरु-धर्मादिकका श्रद्धान अभ्यासमात्र होता है और इसके श्रद्धानमें विपरीताभिनिवेशका अभाव नहीं होता; इसलिये यहाँ निश्चयसम्यक्त्व तो है नहीं और व्यवहारसम्यक्त्व भी आभासमात्र है; क्योंकि इसके देव-गुरु-धर्मादिकका श्रद्धान है सो विपरीताभिनिवेशके अभावको साक्षात् कारण नहीं हुआ। कारण हुए बिना उपचार सम्भव नहीं है; इसलिये साक्षात् कारण अपेक्षा व्यवहारसम्यक्त्व भी इसके सम्भव नहीं है। अथवा इसके देव-गुरु-धर्मादिकका श्रद्धान नियमरूप होता है, सो विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान को परम्परा कारणभूत है । यद्यपि नियमरूप कारण नहीं है, तथापि मुख्यरूपसे कारण है। तथा कारणमें कार्यका उपचार सम्भव है; इसलिये मुख्यरूप परम्परा कारण अपेक्षा मिथ्यादृष्टि के भी व्यवहारसम्यक्त्व कहा जाता है। [ ३३१ यहाँ प्रश्न है कि कितने ही शास्त्रोंमें देव - गुरु- धर्मके श्रद्धानको व तत्त्वश्रद्धान को तो व्यवहारसम्यक्त्व कहा है और आपापरके श्रद्धानको व केवल आत्माके श्रद्धानको निश्चयसम्यक्त्व कहा है सो किस प्रकार है ? समाधान :- देव-गुरु- धर्मके श्रद्धानमें तो प्रवृत्तिकी मुख्यता है, जो प्रवृत्तिमें अरहन्तादिकको देवादिक माने और को न माने, उसे देवादिकका श्रद्धानी कहा जाता है। और तत्त्वश्रद्धानमें उनके विचार की मुख्यता है; जो ज्ञानमें जीवादिक तत्त्वोंका विचार करे, उसे तत्त्वश्रद्धानी कहते हैं। इस प्रकार मुख्यता पायी जाती है। सो यह दोनों किसी जीव को सम्यक्त्व के कारण तो होते हैं, परन्तु इसका सद्भाव मिथ्यादृष्टि के भी सम्भव नहीं है; इसलिये इनको व्यवहारसम्यक्त्व कहा है। तथा आपापरके श्रद्धानमें व आत्मश्रद्धानमें विपरीताभिनिवेशरहितपनेकी मुख्यता है। जो आपापर का भेद विज्ञान करे व अपने आत्मा का अनुभव करे उसके मुख्यरूपसे विपरीताभिनिवेश नहीं होता; इसलिये भेदविज्ञानीको व आत्मज्ञानीको सम्यग्दृष्टि कहते हैं । इस प्रकार मुख्यता से आपापरका श्रद्धान व आत्मश्रद्धान सम्यग्दृष्टिके ही पाया जाता है; इसलिये इनको निश्चयसम्यक्त्व कहा। ऐसा कथन मुख्यता की अपेक्षा है। तारतम्यरूपसे यह चारों आभास मात्र मिथ्यादृष्टिके होते हैं, सच्चे - सम्यग्दृष्टिके होते हैं। वहाँ आभासमात्र हैं वे तो नियम बिना परम्परा कारण हैं और सच्चे हैं सो नियमरूप साक्षात् कारण हैं; इसलिये इनको व्यवहाररूप कहते हैं। इनके निमित्त से जो विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान हुआ सो निश्चयसम्यक्त्व है - ऐसा जानना । — Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com -
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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