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नौवाँ अधिकार]
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फिर प्रश्न है कि सम्यक्त्व-चारित्रका घातक मोह है, उसका अभाव हुए बिना मोक्षका उपाय कैसे बने ?
उत्तर :- तत्त्वनिर्णय करने में उपयोग न लगाये वह तो इसी का दोष है। तथा पुरुषार्थसे तत्त्वनिर्णय में उपयोग लगाये तब स्वयमेव ही मोहका अभाव होनेपर सम्यक्त्वादिरूप मोक्ष के उपाय का पुरुषार्थ बनता है। इसलिये मुख्यतासे तो तत्त्वनिर्णयमें उपयोग लगानेका पुरुषार्थ करना। तथा उपदेश भी देते हैं, सो यही पुरुषार्थ कराने के अर्थ दिया जाता है, तथा इस पुरुषार्थसे मोक्षके उपाय का पुरुषार्थ अपनेआप सिद्ध होगा।
और तत्त्वनिर्णय न करने में किसी कर्मका दोष है नहीं, तेरा ही दोष है; परन्तु तू स्वयं तो महन्त रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिकको लगाता है; सो जिनआज्ञा माने तो ऐसी अनीति संभव नहीं है। तुझे विषय-काषायरूप ही रहना है, इसलिये झूठ बोलता है। मोक्षकी सच्ची अभिलाषा हो तो ऐसी यक्ति किसलिये बनाये? सांसारिक कार्यों में अपने पुरुषार्थसे सिद्धि न होती जाने, तथापि पुरुषार्थसे उद्यम किया करता है, यहाँ पुरुषार्थ खो बैठा; इसलिये जानते हैं कि मोक्षको देखादेखी उत्कृष्ट कहता है; उसका स्वरूप पहिचानकर उसे हितरूप नहीं जानता। हित जानकर उसका उद्यम बने सो न करे यह असम्भव है।
यहाँ प्रश्न है कि तुमने कहा सो सत्य; परन्तु द्रव्य कर्मके उदय से भावकर्म होता है, भावकर्मसे द्रव्यकर्म का बन्ध होता है, तथा फिर उसके उदयसे भावकर्म होता है - इसी अनादिसे परम्परा है, तब मोक्षका उपाय कैसे हो ?
समाधान :- कर्मका बन्ध व उदय सदाकाल समान ही होता रहे तब तो ऐसा ही है; परन्तु परिणामोंके निमित्तसे पूर्वबद्धकर्म के भी उत्कर्षण-अपकर्षण-संक्रमणादि होनेसे उनकी शक्ति हीनाधिक होती है; इसलिये उनका उदय भी मन्द-तीव्र होता है। उनके निमित्तसे नवीन बन्ध भी मन्द-तीव्र होता है। इसलिये संसारी जीवोंको कर्मोदयके निमित्तसे कभी ज्ञानादिक बहत प्रगट होते हैं, कभी थोड़े प्रगट होते हैं; कभी रागादिक मन्द होते हैं. कभी तीव्र होते हैं। इसप्रकार परिवर्तन होता रहता है।
वहाँ कदाचित् संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त पर्याय प्राप्त की, तब मन द्वारा विचार करने की शक्ति हुई। तथा इसके कभी तीव्र रागादिक होते हैं, कभी मन्द होते हैं। वहाँ रागादिकका तीव्र उदय होने से तो विषयकषयादिकके कार्यों में ही प्रवृत्ति होती है। तथा रागादिकका मन्द उदय होनेसे बाह्य उपदेशादिकका निमित्त बने और स्वयं पुरुषार्थ करके उन उपदेशादिकमें उपयोग को लगाये तो धर्मकार्यों में प्रवृत्ति हो; और निमित्त न बने व स्वयं पुरुषार्थ न करे तो
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