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आठवाँ अधिकार]
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___ उनसे कहते हैं – जिनमतमें यह परिपाटी है कि पहले सम्यक्त्व होता है फिर व्रत होतें हैं; वह सम्यक्त्व स्व-पर का श्रद्धान होने पर होता है और वह श्रद्धान द्रव्यानुयोगका अभ्यास करने पर होता है; इसलिये प्रथम द्रव्यानुयोगके अनुसार श्रद्धान करके सम्यग्दृष्टि हो, पश्चात् चरणानुयोगके अनुसार व्रतादिक धारण करके व्रती हो। -इसप्रकार मुख्य रूपसे तो निचली दशामें ही द्रव्यानुयोग कार्यकारी है; गौणरूप से जिसे मोक्षमार्गकी प्राप्ति होती न जाने उसे पहले किसी व्रतादिक का उपदेश देते हैं; इसलिये ऊँची दशावालोंको अध्यात्मअभ्यास योग्य है ऐसा जानकर निचली दशावालोंको वहाँ से पराङ्मुख होना योग्य नहीं है।
तथा यदि कहोगे कि ऊँचे उपदेशका स्वरूप निचली दशावालोंको भासित नहीं होता।
उसका उत्तर यह है - और तो अनेक प्रकार की चतुराई जानें और यहाँ मूर्खपना प्रगट करें, वह योग्य नहीं है। अभ्यास करने से स्वरूप भली-भांति भासित होता है, अपनी बुद्धि अनुसार थोड़ा बहुत भासित हो; परन्तु सर्वथा निरुद्यमी होने का पोषण करें वह तो जिनमार्ग का द्वेषी होना है।
तथा यदि कहोगे कि यह काल निकृष्ट है, इसलिये उत्कृष्ट अध्यात्म-उपदेश की मुख्यता नहीं करना।
तो उनसे कहते हैं - यह काल साक्षात् मोक्ष न होनेकी अपेक्षा निकृष्ट है, आत्मानुभवनादिक द्वारा सम्यक्त्वादिक होना इस कालमें मना नहीं है; इसलिये आत्मानुभवनादिकके अर्थ द्रव्यानुयोगका अवश्य अभ्यास करना। वही षट्पाहुड़में ( मोक्षपाहुड़में ) कहा है :
अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाऊण जंति सुरलोए।
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदिं जंति ।। ७७ ।। अर्थ :- आज भी त्रिरत्न से शुद्ध जीव आत्मा को ध्याकर स्वर्गलोक को प्राप्त होते हैं व लौकान्तिकमें देवपना प्राप्त करते हैं; वहाँ से च्युत होकर मोक्ष जाते हैं। बहुरि । इसलिये इस काल में भी द्रव्यानुयोगका उपदेश मुख्य चाहिये।
कोई कहता है - द्रव्यानुयोगमें अध्यात्म-शास्त्र हैं; वहाँ स्व-पर भेदविज्ञानादिकका उपदेश दिया वह तो कार्यकारी भी बहुत है और समझ में भी शीघ्र आता है; परन्तु द्रव्य
'यहाँ 'बहुरि' के आगे ३-४ पंक्तियोंका स्थान हस्तलिखित मूल प्रतिमें छोड़ा गया है, जिससे ज्ञात होता है कि पण्डित प्रवर श्री टोडरमलजी यहाँ कुछ और भी लिखना चाहते थे, किन्तु लिख नहीं सके।
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