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[मोक्षमार्गप्रकाशक
बढ़ता है; उसी प्रकार धर्मात्मा पुरुषोंकी कथा सुनने पर अपनेको धर्मकी प्रीति विशेष होती है। इसलिये प्रथमानुयोगका अभ्यास करना योग्य है। करणानुयोगमें दोष-कल्पनाका निराकरण
करणा
तथा कितने ही जीव कहते हैं - करणानुयोगमें गुणस्थान, मार्गणादिकका व कर्मप्रकृतियोंका कथन किया व त्रिलोकादिकका कथन किया; सो उन्हें जान लिया कि 'यह इसप्रकार है', 'यह इसप्रकार है' इसमें अपना कार्य क्या सिद्ध हुआ ? या तो भक्ति करें, या व्रत-दानादि करें, या आत्मानुभवन करें - इससे अपना भला हो।
उनसे कहते हैं – परमेश्वरतो वीतराग हैं; भक्ति करनेसे प्रसन्न होकर कुछ करते नहीं हैं। भक्ति करनेसे कषाय मन्द होती है, उसका स्वयमेव उत्तम फल होता है। सो करणानुयोगके अभ्यासमें उससे भी अधिक मन्द कषाय हो सकती है, इसलिये इसका फल अति उत्तम होता है। तथा व्रत-दानादिक तो कषाय घटानेके बाह्यनिमित्तके साधन हैं और
गका अभ्यास करने पर वहाँ उपयोग लग जाये तब रागादिक दर होते हैं सो यह अंतरंगनिमित्तका साधन है; इसलिये यह विशेष कार्यकारी है। व्रतादिक धारण करके अध्ययनादि करते हैं। तथा आत्मानुभव सर्वोत्तम कार्य है; परन्तु सामान्य अनुभवमें उपयोग टिकता नहीं है, और नहीं टिकता तब अन्य विकल्प होते हैं; वहाँ करणानुयोगका अभ्यास हो तो उस विचार में उपयोगको लगाता है।
यह विचार वर्तमान भी रागादिक घटाता है और आगामी रागादिक घटानेका कारण है, इसलिये यहाँ उपयोग लगाना।
जीव-कर्मादिकके नानाप्रकारसे भेद जाने, उनमें रागादिक करने का प्रयोजन नहीं है, इसलिये रागादिक बढ़ते नहीं हैं; वीतराग होनेका प्रयोजन जहाँ-तहाँ प्रगट होता है, इसलिये रागादि मिटाने का कारण है।
यहाँ कोई कहे – कोई कथन तो ऐसा ही है, परन्तु द्वीप-समुद्रादिकके योजनादिका निरूपण किया उनमें क्या सिद्धि है ?
उत्तर :- उनको जानने पर उनमें कुछ इष्ट-अनिष्ट बुद्धि नहीं होती, इसलिये पूर्वोक्त सिद्धि होती है।
फिर वह कहता है – ऐसा है तो जिनसे कुछ प्रयोजन नहीं है ऐसे पाषाणादिकको भी जानते हुए वहाँ इष्ट-अनिष्टपना नहीं मानते, इसलिये वह भी कार्यकारी हुआ।
उत्तर :- सरागी जीव रागादि प्रयोजन बिना किसी को जानने का उद्यम नहीं करता; यदि स्वयमेव उनका जानना होतो अंतरंग रागादिकके अभिप्रायवश वहाँसे उपयोगको छुड़ाना ही चाहता है। यहाँ उद्यम द्वारा द्वीप-समुद्रादिकको जानता है, वहाँ उपयोग लगाता
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