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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates आठवाँ अधिकार] [२८९ और यदि तुम कहोगे कि सम्बन्ध मिलानेको सामान्य कथन किया होता, बढ़ाकर कथन किसलिये किया ? उसका उत्तर यह है कि परोक्ष कथनको बढ़ाकर कहे बिना उसका स्वरूप भासित नहीं होता। तथा पहले तो भोग-संग्रामादि इसप्रकार किये, पश्चात् सबका त्याग करके मुनि हुए; इत्यादि चमत्कार तभी भासित होंगे जब बढ़ाकर कथन किया जाये। तथा तुम कहते हो - उसके निमित्तसे रागादिक बढ़ जाते हैं; सो जैसे कोई चैत्यालय बनवाये, उसका प्रयोजन तो वहाँ धर्म कार्य कराने का है; और कोई पापी वहाँ पाप कार्य करे तो चैत्यालय बनवाने वाले का तो दोष नहीं है। उसी प्रकार श्रीगुरुने पुराणादिमें श्रृंगारादिका वर्णन किया; वहाँ उनका प्रयोजन रागादिक कराने का तो है नहीं, धर्ममें लगाने का प्रयोजन है; परन्तु कोई पापी धर्म न करे और रागादिक ही बढ़ाये तो श्रीगुरुका क्या दोष है ? यदि तू कहे कि रागादिकका निमित्त हो ऐसा कथन ही नहीं करना था। उसका उत्तर यह है - सरागी जीवोंका मन केवल वैराग्यकथन में नहीं लगता। इसलिये जिसप्रकार बालकको बताशेके आश्रयसे औषधि देते हैं; उसी प्रकार सरागी को भोगादि कथन के आश्रय से धर्ममें रुचि कराते हैं। यदि तू कहेगा - ऐसा है तो विरागी पुरुषोंको तो ऐसे ग्रन्थोंका अभ्यास करना योग्य नहीं है ? उसका उत्तर यह है – जिनके अंतरंगमें रागभाव नहीं है, उनको श्रृंगारादि कथन सुननेपर रागादि उत्पन्न ही नहीं होते। वे जानते हैं कि यहाँ इसीप्रकार कथन करने की पद्धति है। फिर तू कहेगा – जिनको श्रृंगारादिका कथन सुननेपर रागादि हों आयें, उन्हें तो वैसा कथन सुनना योग्य नहीं है ? उसका उत्तर यह है - जहाँ धर्महीका तो प्रयोजन है और जहाँ-तहाँ धर्म का पोषण करते हैं - ऐसे जैन पुराणादिकमें प्रसंगवश श्रृंगारादिकका कथन किया है। उसे सुनकर भी तो बहुत रागी हुआ तो वह अन्यत्र कहाँ विरागी होगा ? वह तो पुराण सुनना छोड़कर अन्य कार्य भी ऐसे ही करेगा जहाँ बहुत रागादि हों; इसलिये उसको भी पुराण सुनने से थोड़ी बहुत धर्मबुद्धि हो तो हो। अन्य कार्योंसे तो यह कार्य भला ही है। तथा कोई कहे - प्रथमानुयोगमें अन्य जीवोंकी कहानियाँ हैं, उनसे अपना क्या प्रयोजन सधता है ? उससे कहते हैं – जैसे कामी पुरुषोंकी कथा सुनने पर अपनेको भी काम का प्रेम Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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