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उक्त संकेतों और प्रतिपादित विषय के आधार पर प्रतीत होता है कि यदि यह महाग्रंथ निर्विघ्न समाप्त हो गया होता तो पाँच हजार पृष्ठों से कम नहीं होता और उसमें मोक्षमार्गके मूलाधार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका विस्तृत विवेचन होता। उनके अन्तरमें क्या था, वे इसमें क्या लिखना चाहते थे- यह तो वे ही जानें, पर प्राप्त ग्रंथके आधार पर हम कह सकते हैं कि उसकी संभावित रूप-रेखा कुछ ऐसी होती :
(२)
सर्वज्ञ-वीतराग अर्हन्तदेव हैं : बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ गुरु हैं। इनका वर्णन इस ग्रंथमें आगे विशेष लिखेंगे सो जानना। पृष्ठ १३६
इसलिये सम्यश्रद्धानका स्वरूप यह नहीं है। सच्चा स्वरूप है उसका वर्णन आगे करेंगे सो जानना। पृष्ठ १५७
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परन्तु द्रव्यलिंगी मुनिके शास्त्राभ्यास होने पर भी मिथ्याज्ञान कहा है, असंयत सम्यग्दृष्टिका विषयादिरूप जानना उसे समयग्ज्ञान कहा है। इसलिये यह स्वरूप नहीं है। सच्चा स्वरूप आगे कहेंगे सो जानना। पृष्ठ १५७
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और उनके मतके अनुसार गृहस्थादिकके महाव्रतादि बिना अंगीकार किये भी सम्यक्चारित्र होता है, इसलिये यह स्वरूप नहीं है। सच्चा स्वरूप आगे कहेंगे सो जानना। पृष्ठ १५८
(६) (७)
सच्चे जिन धर्मका स्वरूप आगे कहते हैं। पृष्ठ १६७ ज्ञानीके भी मोहके उदयसे रागादि होते हैं यह सत्य है; परन्तु बुद्धिपूर्वक रागादिक नहीं होते। उसका विशेष वर्णन आगे करेंगे। पृष्ठ २०७
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तथा भरतादिक सम्यग्दृष्टियोंके विषय-कषायोंकि प्रवृत्ति जैसे होती है वह भी विशेषरूप से आगे कहेंगे। पृष्ठ २०७ अंतरंग कषायशक्ति घटानेसे विशुद्धता होनेपर निर्जरा होती है। सो इसके प्रगट स्वरूप का आगे निरूपण करेंगे। पृष्ठ २३२ और फल लगता है सो अभिप्रायमें जो वासना है उसका लगता है। उसका विशेष व्याख्यान आगे करेंगे। वहाँ स्वरूप भली-भाँति भासित होगा। पृष्ठ २३८ । आज्ञानुसारी हुआ देखा-देखी साधन करता है। इसलिये इसके निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग नहीं हुआ। वहाँ निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्गका आगे निरूपण करेंगे। उसका साधन होने पर ही मोक्षमार्ग होगा। पृष्ठ २५७ उसी प्रकार वही आत्मा कर्म उदय निमित्तके वश बन्ध होने के कारणों में : विषय सेवनादि कार्य व क्रोधादि कार्य करते है; तथापि उस श्रद्धान का उसके नाश नहीं होता। इसका विशेष निर्णय आगे करेंगे। पृष्ठ ३२१
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