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आठवाँ अधिकार]
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इसी प्रकार प्रथमानुयोगमें अन्य कथन भी हों, उन्हें यथासम्भव जानकर भ्रमरूप नहीं होना।
करणानुयोगके व्याख्यानका विधान
अब, करणानुयोगमें किसप्रकार व्याख्यान है सो कहते हैं :
जैसा केवलज्ञान द्वारा जाना वैसा करणानुयोगमें व्याख्यान है। तथा केवलज्ञान द्वारा तो बहुत जाना, परन्तु जीव को कार्यकारी जीव-कर्मादिकका व त्रिलोकादिकका ही निरूपण इसमें होता है। तथा उनका भी स्वरूप सर्व निरूपित नहीं हो सकता, इसलिये जिस प्रकार वचनगोचर होकर छद्मस्थके ज्ञानमें उनका कुछ भाव भासित हो, उस प्रकार संकुचित करके निरूपण करते हैं। यहाँ उदाहरण - जीवके भावोंकी अपेक्षा गुणस्थान कहें हैं, वे भाव अनन्तस्वरूपसहित वचनगोचर नहीं हैं. वहाँ बहत भावोंकी एक जाति करके चौदह गुणस्थान कहे हैं। तथा जीवोंको जाननेके अनेक प्रकार हैं, वहाँ मुख्य चौदह मागर्णाका निरूपण किया है। तथा कर्म परमाणु अनन्त प्रकार शक्तियुक्त हैं, उनमें बहुतोंकी एक जाति करके आठ व एक सौ अड़तालीस प्रकृतियाँ कही हैं। तथा त्रिलोकमें अनेक रचनाएँ हैं, वहाँ कुछ मुख्य रचनाओंका निरूपण कहते हैं। तथा प्रमाण के अनंत भेद हैं, वहाँ संख्यातादि तीन भेद व इनके इक्कीस भेद निरूपित किये हैं। इसी प्रकार अन्यत्र जानना।
तथा करणानुयोगमें यद्यपि वस्तुके क्षेत्र, काल, भावादिक अखंडित है; तथापि छद्मस्थको हीनादिक ज्ञान होने के अर्थ प्रदेश, समय, अविभाग-प्रतिच्छेदादिककी कल्पना करके उनका प्रमाण निरूपित करते हैं। तथा एक वस्तुमें भिन्न-भिन्न गुणोंका व पर्यायोंका भेद करके निरूपण करते हैं। तथा जीव-पुद्गलादिक यद्यपि भिन्न-भिन्न हैं; तथापि सम्बन्धादिक द्वारा अनेक द्रव्य से उत्पन्न गति, जाति आदि भेदोंको एक जीवके निरूपित करते हैं, - इत्यादि व्याख्यान व्यवहारनयकी प्रधानता सहित जानना, क्योंकि व्यवहार के बिना विशेष नहीं जान सकता। तथा कहीं निश्चयवर्णन भी पाया जाता है। जैसे - जीवादिक द्रव्योंका प्रमाण निरूपण किया. वहाँ भिन्न-भिन्न इतने ही द्रव्य हैं। वह यथा सम्भव जान लेना।
तथा करणानुयोगमें जो कथन हैं वे कितने ही तो छद्मस्थके प्रत्यक्ष-अनुमानादिगोचर होते हैं. तथा जो न हों उन्हें आज्ञा प्रमाण द्वारा मानना। जिस प्रकार जीव-पुदगलके स्थल बहुत कालस्थायी मनुष्यादि पर्यायें व घटादि पर्यायें निरूपित की, उनके तो प्रत्यक्ष अनुमानादि हो सकते हैं; परन्तु प्रतिसमय सूक्ष्मपरिणमनकी अपेक्षा ज्ञानादिकके व
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