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[मोक्षमार्गप्रकाशक
‘ऐसे ही है'- ऐसी उस शिक्षाकी प्रतीति हो जाये; अथवा अन्यथा विचार हो या अन्य विचारमें लगकर उस शिक्षाका निर्धार न करे तो प्रतीति नहीं भी हो; उसी प्रकार श्रीगुरुने तत्त्वोपदेश दिया, उसे जानकर विचार करे कि यह उपदेश दिया सो किस प्रकार है ? पश्चात् विचार करने पर उसको ‘ऐसा ही है'- ऐसी प्रतीति हो जाये; अथवा अन्यथा विचार हो या अन्य विचारमें लगकर उस उपदेशका निर्धार न करे तो प्रतीति नहीं भी हो। सो मूलकारण मिथ्यात्वकर्म है; उसका उदय मिटे तो प्रतीति हो जाये, न मिटे तो नहीं हो; ऐसा नियम है। उसका उद्यम तो तत्त्वविचार करना मात्र ही है।
तथा पाँचवी करणलब्धि होनेपर सम्यक्त्व हो ही हो – ऐसा नियम है। सो जिसके पहले कही हुई चार लब्धियाँ तो हुई हों और अंतर्मुहूर्त पश्चात जिसके सम्यक्त्व होना हो उसी जीवके करणलब्धि होती है।
सो इस करणलब्धिवालेके बुद्धिपूर्वक तो इतना ही उद्यम होता है कि उस तत्त्वविचारमें उपयोगको तद्रूप होकर लगाये, उससे समय-समय परिणाम निर्मल होते जाते हैं। जैसे - किसीके शिक्षाका विचार ऐसा निर्मल होने लगा कि जिससे उसको शीघ्र ही उसकी प्रतीति हो जायेगी; उसी प्रकार तत्त्वोपदेशका विचार ऐसा निर्मल होने लगा कि जिससे उसको शीघ्र ही उसका श्रद्धान हो जायेगा। तथा इन परिणामोंका तारतम्य केवलज्ञान द्वारा देखा, उसका निरूपण करणानुयोगमें किया है।
इस करणलब्धिके तीन भेद हैं - अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण। इनका विशेष व्याख्यान तो लब्धिसार शास्त्रमें किया है वहाँसे जानना। यहाँ संक्षेपमें कहते हैं।
त्रिकालवर्ती सर्व करणलब्धिवाले जीवोंके परिणामोंकी अपेक्षा ये तीन नाम हैं। वहाँ करण नाम तो परिणामोंका है।
जहाँ पहले और पिछले समयोंके परिणाम समान हों सो अधःकरण है। जैसे - किसी जीवके परिणाम उस करणके पहले समयमें अल्प विशुद्धतासहित हुए, पश्चात् समयसमय अनन्तगुनी विशुद्धतासे बढ़ते गये, तथा उसके द्वितीय-तृतीय आदि समयोंमें जैसे परिणाम हों वैसे किन्हीं अन्य जीवोंके प्रथम समयमें ही हो और उनके उससे समय-समय अनन्तगुनी विशुद्धतासे बढ़ते हों – इसप्रकार अधःप्रवृत्तिकरण जानना।
तथा जिसमें पहले और पिछले समयोंके परिणाम समान न हों, अपूर्व ही हों, वह अपूर्वकरण है। जैसे कि उस करणके परिणाम जैसे पहले समयमें हो वैसे किसी भी जीवके
लब्धिसार, गाथा ३५
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