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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सातवाँ अधिकार] [२६१ तथा किसीको तत्त्वविचार होनेके पश्चात् तत्त्वप्रतीति न होनेसे सम्यक्त्व तो नहीं हुआ और व्यवहारधर्मकी प्रतीति-रुचि होगई, इसलिये देवादिककी प्रतीति करता है व व्रततपको अंगीकार करता है। किसीको देवादिककी प्रतीति और सम्यक्त्व युगपत् होते हैं तथा व्रत-तप सम्यक्त्वके साथ भी होते हैं और पहले पीछे भी होते हैं। देवादिककी प्रतीतिका तो नियम है, उसके बिना सम्यक्त्व नहीं होता; व्रतादिकका नियम है नहीं। बहुत जीव तो पहले सम्यक्त्व हो पश्चातही व्रतादिकको धारण करते हैं, किन्हीं को युगपत् भी हो जाते हैं। इसप्रकार यह तत्त्वविचारवाला जीव सम्यक्त्वका अधिकारी है; परन्त उसके सम्यक्त्व हो ही हो, ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि शास्त्रमें सम्यक्त्व होनेसे पूर्व पंचलब्धियोका होना कहा है। पाँच लब्धियोंका स्वरूप क्षयोपशम , विशुद्ध , देशना , प्रयोग्य, करण। वहाँ जिसके होनेपर तत्त्वविचार हो सके - ऐसा ज्ञानावरणादि कर्मोंका क्षयोपशम हो अर्थात उदयकालको प्राप्त सर्वघाती स्पर्धकोंके निषेकोंके उदयका अभाव सो क्षय, तथा अनागतकालमें उदय आने योग्य उन्हींका सत्तारूप रहना सो उपशम- ऐसी देशघाती स्पर्धकोंके उदय सहित कर्मोंकी अवस्था उसका नाम क्षयोपशम है; उसकी प्राप्ति सो क्षयोपशमलब्धि है। तथा मोहका मन्द उदय आनेसे मन्दकषायरूप भाव हों कि जहाँ तत्त्वविचार होसके सो विशुद्धलब्धि है। तथा जिनदेवके उपदिष्ट तत्त्वका धारण हो, विचार हो, सो देशनालब्धि है। जहाँ नरकादिमें उपदेशका निमित्त न हो वहाँ वह पूर्व संस्कारसे होती है। तथा कर्मोंकी पूर्वसत्ता अंत: कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण रह जाये और नवीन बन्ध अंतः कोड़ाकोड़ी प्रमाण उसके संख्यातवें भागमात्र हो, वह भी उस लब्धिकालसे लगाकर क्रमश: घटता जाये और कितनी ही पापप्रकृतियोंका बन्ध मिटता जाये - इत्यादि योग्य अवस्थाका होना सो प्रयोग्यलब्धि है। __ सो ये चारों लब्धियाँ भव्य या अभव्यके होती हैं। ये चार लब्धियाँ होनेके बाद सम्यक्त्व हो तो हो न हो तो नहीं भी हो - ऐसा ‘लब्धिसार' में कहा है। इसलिये उस तत्त्वविचारवालेको सम्यक्त्व होनेका नियम नहीं है। जैसे - किसीको हितकी शिक्षा दी, उसे जानकर वह विचार करे कि यह जो शिक्षा दी सो कैसे है ? पश्चात विचार करनेपर उसको १ लब्धिसार, गाथा ३ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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