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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २४६] [ मोक्षमार्गप्रकाशक उत्तर :- जैसे किसीका बहुत दण्ड होता था, वह थोड़ा दण्ड देनेका उपाय रखता है, थोड़ा दण्ड देकर हर्ष भी मानता है, परन्तु श्रद्धानमें दण्ड देना अनिष्ट ही मानता है; उसी प्रकार सम्यग्दृष्टिके पापरूप बहुत कषाय होती थी, सो वह पुण्यरूप थोड़ी कषाय करनेका उपाय रखता है, थोड़ी कषाय होनेपर हर्ष भी मानता है, परन्तु श्रद्धानमें कषायको हेय ही मानता है। तथा जैसे- कोई कमाई का कारण जानकर व्यापारादिका उपाय रखता है, उपाय बन जाने पर हर्ष मानता है; उसी प्रकार द्रव्यलिंगी मोक्षका कारण जानकर प्रशस्तरागका उपाय रखता है, उपाय बन जाने पर हर्ष मानता है। - इसप्रकार प्रशस्तरागके उपायमें और हर्षमें समानता होनेपर भी सम्यग्दृष्टिके तो दण्ड समान और मिथ्यादृष्टिके व्यापार समान श्रद्धान पाया जाता है। इसलिये अभिप्रायमें विशेष हुआ। तथा इसके परीषह-तपश्चरणादिकके निमित्तसे दुख हो उसका इलाज तो नहीं करता ; परन्तु दुःखका वेदन करता है; सो दुःखका वेदन करना कषाय ही है। जहाँ वीतरागता होती है वहाँ तो जैसे अन्य ज्ञेयको जानता है उसी प्रकार दुःखके कारण ज्ञेयको जानता है; सो ऐसी दशा इसकी होती नहीं है। तथा उनको सहता है वह भी कषायके अभिप्रायरूप विचारसे सहता है। वह विचार ऐसा होता है कि परवशतासे नरकादि गतिमें बहुत दुःख सहन किये, यह परीषहादिका दुःख तो थोड़ा है। इसको स्ववश सहनेसे स्वर्गमोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है। यदि इनको न सहें और विषयसुखका सेवन करें तो नरकादिककी प्राप्ति होगी वहाँ बहुत दुःख होगा - इत्यादि विचारसे परीषहोंमें अनिष्ट बुद्धि रहती है। केवल नरकादिकके भयसे तथा सुखके लोभसे उन्हें सहन करता है; सो यह सब कषायभाव ही हैं। तथा ऐसा विचार होता है कि जो कर्म बांधे थे वे भोगे बिना नहीं छूटते; इसलिये मुझे सहने पड़े। सो ऐसे विचारसे कर्मफलचेतनारूप प्रवर्तता है। तथा पर्यायदृष्टिसे जो परीषहादिरूप अवस्था होती है उसे अपनेको हुई मानता है; द्रव्यदृष्टिसे अपनी और शरीरादिककी अवस्थाको भिन्न नहीं पहिचानता। इसीप्रकार नानाप्रकारके व्यवहार विचारसे परीषहादिक सहन करता है। तथा उसके राज्यादिक विषयसामग्रीका त्याग है और इष्ट भोजनादिकका त्याग करता रहता है। वह तो जैसे कोई दाहज्वरवाला वायु होनेके भयसे शीतलवस्तु सेवनका त्याग करता है, परन्तु जब तक शीतलवस्तुका सेवन रुचता है तब तक उसके दाहका अभाव नहीं कहा जाता ; उसी प्रकार रागसहित जीव नरकादिके भयसे विषयसेवनका त्याग करता है, परन्तु जब तक विषयसेवन रुचता है तब तक उसके रागका अभाव नहीं कहा जाता। तथा जैसे – अमृतके आस्वादी देवको अन्य भोजन स्वयमेव नहीं रुचता; उसी प्रकार स्वरसका आस्वादन करके विषयसेवनकी अरुचि इसके नहीं हुई है। इसप्रकार फलादिककी Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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