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संस्कृत ग्रन्थोंकी टीकाएँ आत्मानुशासन भाषाटीका और पुरुषार्थसिद्धयुपाय भाषाटीका है। प्राकृत ग्रंथोंमें गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार-क्षपणासार और त्रिलोकसार हैं, जिनकी भाषा टीकाएँ उन्होंने लिखी हैं।
गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार-क्षपणासारकी भाषा - टीकाएँ पंडित टोडरमलजी ने अलग-अलग बनाई थीं, किन्तु उक्त चारों टीकाओंको परस्पर एक दूसरे से सम्बन्धित एवं परस्पर एकका अध्ययन दूसरेके अध्ययनमें सहायक जानकर, उन्होंने उक्त चारों टीकाओंकों मिला कर एक कर दिया तथा उनका नाम 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' रख दिया। सम्यग्ज्ञानचंद्रिकाकी पीठीकामें उक्त चारों ग्रंथ की टीका मिलाकर एक कर देने के सम्बन्धमें सयुक्ति समर्थ कारण प्रस्तुत किये हैं । प्रशस्तिमें तत्संबन्धी उल्लेख इसप्रकार है :
या विधि गोम्मटसार लब्धिसार ग्रन्थनिकी,
इनिकै
भिन्न–भिन्न भाषाटीका कीनी अर्थ गायकैं ।
परस्पर
सहायकपनौ देख्यौ, तैं एक कर दई हम तिनको मिलायकें ।
सम्यग्ज्ञानचंद्रिका धर्यो है याकौ नाम,
सोई होत है सफल ज्ञानानन्द उपजायकै ।
कलिकाल रजनीमें अर्थको प्रकाश करें,
यातैं निज काज कीजै इष्ट भव भायकैं ।। ३० ।।
सम्यग्ज्ञानचंद्रिका विवेचनात्मक गद्य शैलीमें लिखी गई है। प्रारंभमें इकहत्तर पृष्ठकी पीठिका है। आज नवीन शैलीसे संपादित ग्रंथोंमें भूमिका का बड़ा महत्व माना जाता है। शैली के क्षेत्रमें लगभग दो सौ बीस वर्ष पूर्व लिखी गई सम्यग्ज्ञानचंद्रिकाकी पीठिका आधुनिक भूमिका का आरम्भिक रूप । किन्तु भूमिका का आद्य रूप होने पर भी उसमें प्रौढ़ता पाई जाती है, उसमें हलकापन कहीं भी देखने को नहीं मिलता। इसके पढ़ने से ग्रन्थका पूरा हार्द खुल जाता है एवं इस गूढ़ ग्रंथके पढ़नेमें आने वाली पाठक की समस्त कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं। हिन्दी आत्मकथा - साहित्य में जो महत्व महाकवि पंडित बनारसीदासके ‘अर्धकथानक' को प्राप्त है, वही महत्त्व हिन्दी भूमिका - साहित्यमें सम्यग्ज्ञानचंद्रिकाकी पीठिका का है ।
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