SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १८०] [मोक्षमार्गप्रकाशक इस प्रकार कुगरुका व उनके सेवनका निषेध किया। अब इस कथनको दृढ़ करनेके लिये शास्त्रोंकी साक्षी देते हैं। वहाँ “ उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला” में ऐसा कहा है : गुरुणो भट्टा जाया सद्दे थुणि ऊण लिंति दाणाई। दोण्णवि अमुणियसारा दूसमिसमयम्मि बुड्ढे ति।।३१ ।। कालदोषसे गुरु जो हैं वे तो भाट हुए; भाटवत् शब्द द्वारा दातारकी स्तुति करके दानादि ग्रहण करते हैं। सो इस दुःषमकालमें दोनों ही - दातार व पात्र संसारमें डूबते हैं। तथा वहाँ कहा है : सप्पे दिढे णासइ लोओ णहि कोवि किंपि अक्खेइ। जो चयइ कुगुरु सप्पं हा मूढा भणइ तं दु8।। ३६ ।। अर्थ :- सर्पको देखकर कोई भागे, उसे तो लोग कुछ भी नहीं कहते। हाय हाय ! देखो तो, जो कुगुरु सर्पको छोड़ते हैं उसे मूढ़लोग दुष्ट कहते हैं, बुरा बोलते हैं। सप्पो इक्कं मरणं कुगुरु अणंताइ देह मरणाईं। तो वर सप्पं गहियं मा कुगुरु सेवणं भई ।। ३७ ।। अहो, सर्प द्वारा तो एकबार मरण होता है और कुगुरु अनन्त मरण देता है - अनन्तबार जन्म-मरण कराता है। इसलिये हे भद, सर्पका ग्रहण तो भला और कुगुरु का सेवन भला नहीं है। वहाँ और भी गाथाएँ यह श्रद्धान दृढ़ करनेको कारण बहुत कही हैं सो उस ग्रंथसे जान लेना। तथा “ संघपट्ट” में ऐसा कहा है :क्षुत्क्षामः किल कोपि रंकशिशुकः प्रवृज्य चैत्ये क्वचित् कृत्वा किंचनपक्षमक्षतकलिः प्राप्तस्तदाचार्यकम्। चित्रं चैत्यगृहे गृहीयति निजे गच्छे कुटुम्बीयति स्वं शक्रीयति बालिशीयति बुधान् विश्व वराकीयति।। अर्थ :- देखो, क्षुधासे कृश किसी रंकका बालक कहीं चैत्यालयादिमें दीक्षा धारण करके, पापरहित न होता हुआ किसी पक्ष द्वारा आचार्यपदको प्राप्त हुआ। वह चैत्यालयमें अपने गृहवत् प्रवर्तता है, निजगच्छमें कुटुम्बवत् प्रवर्तता है, अपनेको इन्द्रवत् महान मानता है, ज्ञानियोंको बालकवत् अज्ञानी मानता है, सर्व गृहस्थोंको रंकवत् मानता है; सो यह बड़ा आश्चर्य हुआ है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy