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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates छठवाँ अधिकार ] [१७९ धर्मात्मा है; उसी प्रकार उच्च पदवीका नाम रखाकर उसमें किंचित् भी अन्यथा प्रवर्ते तो महापापी है, और नीची पदवीका नाम रखाकर किंचित् भी धर्मसाधन करे तो धर्मात्मा है। इसलिये धर्मसाधन तो जितना बने उतना ही करना, कुछ दोष नहीं है; परन्तु ऊँचा धर्मात्मा नाम रखाकर नीच क्रिया करनेसे तो महापाप ही होता है। वही “षट्पाहुड़” में कुन्दकुन्दाचार्यने कहा है : जहजायरूवसरिसो तिलतुसमेत्तं ण गिहदि हत्थेसु। __ जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदम् ।।१८।। (सूत्रपाहुड़) अर्थ :- मुनिपद है वह यथाजातरूप सदृश है। जैसा जन्म होते हुए था वैसा नग्न है। सो वह मुनि अर्थ यानी धन-वस्त्रादिक वस्तुएँ उनमें तिलके तुषमात्र भी ग्रहण नहीं करता। यदि कदाचित् अल्प व बहुत ग्रहण करे तो उससे निगोद जाता है। सो यहाँ देखो, गृहस्थपनेमें बहुत परिग्रह रखकर कुछ प्रमाण करे तो भी स्वर्गमोक्षका अधिकारी होता है और मुनिपनेमें किंचित् परिग्रह अंगीकार करने पर भी निगोदगामी होता है। इसलिये ऊँचा नाम रखाकर नीची प्रवृत्ति युक्त नहीं है। देखो, हुंडावसर्पिणी कालमें यह कलिकाल वर्त रहा है। इसके दोषसे जिनमतमें मुनिका स्वरूप तो ऐसा है जहाँ बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका लगाव नहीं है, केवल अपने आत्माका आपरूप अनुभवन करते हुए शुभाशुभभावोंसे उदासीन रहते है; और अब विषयकषायासक्त जीव मुनिपद धारण करते हैं; वहाँ सर्व सावद्यके त्यागी होकर पंच महाव्रतादि अंगीकार करते हैं, श्वेत-रक्तादि वस्त्रों को ग्रहण करते हैं, भोजनादिमें लोलुपी होते हैं, अपनी पद्धति बढ़ानेके उद्यमी होते हैं व कितने ही धनादिक भी रखते हैं, हिंसादिक करते हैं व नाना आरम्भ करते हैं। परन्तु अल्प परिग्रह ग्रहण करनेका फल निगोद कहा है, तब ऐसे पापों का फल तो अनन्त संसार होगा ही होगा। लोगोंकी अज्ञानता तो देखो, कोई एक छोटी भी प्रतिज्ञा भंग करे उसे तो पापी कहते हैं और ऐसी बड़ी प्रतिज्ञा भंग करते देखकर भी उन्हें गुरुमानते हैं, उनका मुनिवत् सन्मानादि करते हैं; सो शास्त्रमें कृत, कारित, अनुमोदनाका फल कहा है; इसलिये उनको भी वैसा ही फल लगता है। मुनिपद लेनेका क्रम तो यह है - पहले तत्त्वज्ञान होता है, पश्चात् उदासीन परिणाम होते हैं, परिषहादि सहनेकी शक्ति होती है; तब वह स्वयमेव मुनि होना चाहता है और तब श्रीगुरु मुनिधर्म अंगीकार कराते हैं। यह कैसी विपरीतता है कि - तत्त्वज्ञानरहित विषय-कषायासक्त जीवोंको मायासे व लोभ दिखाकर मुनिपद देना, पश्चात् अन्यथा प्रवृत्ति कराना; सो यह बड़ा अन्याय है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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