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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाँचवा अधिकार] [१४३ तथा ऐसा कहा है : ओऽम् ऋषभपवित्रं पुरुहुतमध्वज्ञं यज्ञेषु नग्नं परमं माहसस्तुतं वरं शत्रु जयंतं पशुरिद्रमाहतिरिति स्वाहा। ओऽम् त्रातारमिंद्रं ऋषभं वदन्ति। अमृतारमिंद्रं हवे सुगतं सुपार्श्वमिंद्रं हवे शक्रमर्जितं तद्वद्धमानपुरुहूतमिंद्रं माहरिति स्वाहा। ओऽम् नग्नं सुधीरं दिग्वाससं ब्रह्मगर्भ सनातनं उपैमि वीरं पुरुषमर्हतमादित्यवर्ण तमसः परस्तात स्वाहा। ओऽम् स्वस्तिन इन्द्रो वृद्धश्रवा स्वतिनः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्ताक्ष्यों अरिष्टनेमि स्वस्तिनो वहस्पतिर्दधात। दीर्घायस्त्वायवलायर्वा शभाजाताय। ओऽम रक्ष रक्ष अरिष्टनेमिः स्वाहा। वामदेव शान्त्यर्थमनुविधीयते सोऽस्माकं अरिष्टनेमिः स्वाहा। सो यहाँ जैन तिर्थंकरोंके जो नाम हैं उनके पूजनादि कहे। तथा यहाँ यह भासित हुआ कि- इनके पीछे वेद रचना हुई हैं। इस प्रकार अन्यमतके ग्रन्थोंकी साक्षीसे भी जिनमतकी उत्तमता और प्राचीनता दृढ़ हुई। तथा जिनमतको देखनेसे वे मत कल्पित ही भासित होते हैं; इसलिये जो अपने हितका इच्छुक हो वह पक्षपात छोड़कर सच्चे जैनधर्मको अंगीकार करो। तथा अन्यमतोंमें पूर्वापर विरोध भासित होता है। पहले अवतारमें वेदका उद्धार किया, वहाँ यज्ञादिकमें हिंसादिकका पोषण किया और बुद्धावतारमें यज्ञके निन्दक होकर हिंसादिकका निषेध किया। वृषभावतारमें वीतराग संयमका मार्ग दिखाया और कृष्णावतारमें परस्त्री रमणादि विषयकषायादिकका मार्ग दिखाया। अब यह संसारी किसका कहा करे ? किसके अनुसार प्रवर्ते ? और इन सब अवतारों को एक बतलाते हैं, परन्तु एक भी कदाचित् किसी प्रकार कदाचित् किसी प्रकार कहते हैं व प्रवर्त्तते हैं; तो इसे उनके कहनेकी व प्रवर्त्तनेकी प्रतीति कैसे आये? तथा कहीं क्रोधादिकषायोंका व विषयोंका निषेध करते हैं, कहीं लड़नेका व विषयादि सेवनका उपदेश देते हैं; वहाँ प्रारब्ध बतलाते हैं। सो बिना क्रोधादि हुए अपने आप लड़ना आदि कार्य हों तो यह भी मानें परन्तु वह तो होते नहीं हैं। तथा लड़ना आदि कार्य करने पर भी क्रोधादि हुए न मानें; तो अलग क्रोधादि कौन हैं जिनका निषेध किया ? इसलिये ऐसा नहीं बनता, पूर्वापर विरोध है। गीतामें वीतरागता बतलाकर लड़नेका उपदेश दिया, सो यह प्रत्यक्ष विरोध भासित होता है। तथा ऋषीश्वरादिकों द्वारा श्राप दिया बतलाते हैं, सो ऐसा क्रोध करनेपर निंद्यपना कैसे नहीं हुआ ? इत्यादि जानना। १ यजुर्वेद अ० २५ म० १६ अष्ठ ९१ अ०६ वर्ग १ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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