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[ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा “ नगर पुराण" में भवावतार रहस्यमें ऐसा कहा है :
अकारादिहकारन्तमू धोरेफसंयुतम् । नादविन्दुककलाक्रान्तं चन्द्रमंडलसन्निभम् ।। १ ।। एतद्देवि परं तत्त्वं यो विजनातितत्त्वतः । संसारबन्धनं छित्वा स गच्छेत्परमां गतिम् ।। २ ।।
यहाँ 'अहँ ' ऐसे पदको परमतत्त्व कहा है। उसके जाननेसे परमगतिकी प्राप्ति कही ; सो 'अहँ ' पद जैनमत उक्त है।
तथा “ नगर पुराण" में कहा है :
दशभिर्भोजितैर्विप्रै यत्फलं जायते कृते। मुनेरर्हत्सुभक्तस्य तत्फलं जायते कलौ।। १ ।।
यहाँ कृतयुगमें दस ब्राह्मणोंको भोजन करानेका जितना फल कहा, उतना फल कलियुगमें अर्हत भक्त मुनिको भोजन करानेका कहा है; इसलिये जैनमुनि उत्तम ठहरे।
तथा “ मनुस्मृति” में कहा है :
कुलादिबीजं सर्वेषां प्रथमो विमलवाहनः । चक्षुष्मान् यशस्वी वाभिचन्द्रोअथ प्रसेनजित।। १ ।। मरुदेवी च नाभिश्च भरते कुल सत्तमाः । अष्टमो मरुदेव्यां तु नाभेजति उरक्रमः ।। २ ।। दर्शयन् वर्त्म वीराणां सुरासुरनमस्कृतः। नीतित्रितयकर्त्ता यो युगादौ प्रथमो जिनः।। ३ ।।
यहाँ विमलवाहनादिक मनु कहे, सो जैनमें कुलकरोंके नाम कहे है और यहाँ प्रथमजिनयुगके आदिमें मार्गका दर्शक तथा सुरासुर द्वारा पूजित कहा; सो इसी प्रकार है तो जैनमत युगके आदिहीसे है, और प्रमाणभूत कैसे न कहें ?
तथा ऋग्वेदमें ऐसा कहा है :
ओऽम् त्रैलोक्य प्रतिष्ठितान् चतुर्विंशतितीर्थंकरान् ऋषभाद्यान् वर्द्धमानान्तान् सिद्धान् शरणं प्रपद्ये। ओऽम् पवित्र नग्नमुपविस्पृसामहे एषां नग्नं येषां जातं येषां वीरं सुवीरं इत्यादि।
तथा यजुर्वेदमें ऐसा कहा है :ओऽम् नमो अर्हतो ऋषभाय।
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