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[ मोक्षमार्गप्रकाशक
पढ़नेसे अर्थका निर्णय होता है, व भोजनादिकके अधिकारी भी कहते हैं कि भोजन करनेसे शरीर की स्थिरता होनेपर तत्त्वनिर्णय करने में समर्थ होते हैं; सो ऐसी युक्ति कार्यकारी नहीं
हैं।
तथा यदि कहोगे कि - व्याकरण , भोजनादिक तो अवश्य तत्त्वज्ञान को कारण नहीं हैं, लौकिक कार्य साधनेको कारण हैं; सो जैसे यह हैं उसी प्रकार तुम्हारे कहे तत्त्व भी लौकिक (कार्य) साधनेको ही कारण होते हैं। जिस प्रकार इन्द्रियादिकके जानने को
यक्षादि प्रमाण कहा. व स्थाण-परुषादिमें संशयादिकका निरूपण किया। इसलिये जिनको जाननेसे अवश्य काम-क्रोधादि दूर हों, निराकुलता उत्पन्नहो, वे ही तत्त्व कार्यकारी हैं।
फिर कहोगे कि – प्रमेय तत्त्वमें आत्मादिकका निर्णय होता है सो कार्यकारी है; सो प्रमेय तो सर्व ही वस्तु है, प्रमितिका विषय नहीं है ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है; इसलिये प्रमेय तत्त्व किसलिये कहे ? आत्मा आदि तत्त्व कहना थे।
तथा आत्मादिकका भी स्वरूप अन्यथा प्ररूपित किया है ऐसा पक्षपात रहित विचार करने पर भासित होता है। जैसे आत्मा के दो भेद कहते हैं - परमात्मा, जीवात्मा। वहाँ परमात्मा को सर्वका कर्ता बतलाते हैं। वहाँ ऐसा अनुमान करते हैं कि - यह जगत कर्त्ता द्वारा उत्पन्न हुआ है, क्योंकि यह कार्य है। जो कार्य है वह कर्ता द्वारा उत्पन्न है जैसे - घटादिक। परन्तु यह अनुमानाभास है; क्योंकि ऐसा अनुमानान्तर संभव है। यह सर्व जगत कर्ता द्वारा उत्पन्न नहीं है, क्योंकि इसमें अकार्यरूप पदार्थ भी हैं। जो अकार्य हैं सो कर्त्ता द्वारा उत्पन्न नहीं हैं, जैसे – सूर्य बिम्बादिक। क्योंकि अनेक पदार्थों के समुदायरूप जगत में कोई पदार्थ कृत्रिम हैं सो मनुष्यादिक द्वारा किये होते हैं, कोई अकृत्रिम हैं सो उनका कोई कर्त्ता नहीं है। यह प्रत्यक्षादि प्रमाणके अगोचर हैं इसलिये ईश्वरको कर्त्ता मानना मिथ्या
तथा जीवात्माको प्रत्येक शरीर भिन्न-भिन्न कहते हैं, सो यह सत्य है; परन्तु मुक्त होनेके पश्चात् भी भिन्नही मानना योग्य है। विशेष तो पहले कहा ही है।
इसी प्रकार अन्य तत्त्वोंको मिथ्या प्ररूपित करते हैं।
तथा प्रमाणादिकके स्वरूपकी भी अन्यथा कल्पना करते हैं वह जैन ग्रन्थोंसे परीक्षा करने पर भासित होता है।
इस प्रकार नैयायिक मतमें कहे कल्पित तत्त्व जानना।
वैशेषिकमत
तथा वैशेषिकमत में छह तत्त्व कहे हैं। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य , विशेष, समवाय।
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