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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाँचवा अधिकार] [११७ हम पूछते हैं – कोई किसीका नाम तो न कहे और, ऐसे कार्योंही का निरूपण करके कहे कि किसी ने ऐसे कार्य किये हैं, तब तुम उसे भला जानोगे या बुरा जानोगे ? यदि भला जानोगे तो पापी भले हुए, बुरा कौन रहा ? बुरा जानोगे तो ऐसे कार्य कोई करो, वही बुरा हुआ। पक्षपात रहित न्याय करो। यदि पक्षपातसे कहोगे कि – ठाकुरका ऐसा वर्णन करना भी स्तुति है तो ठाकुरने ऐसे कार्य किसलिये किये ? ऐसे निंद्य कार्य करनेमें क्या सिद्धि हुई ? कहोगे कि – प्रवृत्ति चलाने के अर्थ किये, तो परस्त्रीसेवन आदि निंद्य कार्योंकी प्रवृत्ति चलानेमें आपको व अन्यको क्या लाभ हुआ ? इसलिये ठाकुर को ऐसा कार्य करना सम्भव नहीं है। तथा यदि ठाकुरने कार्य नहीं किये, तुमही कहते हो, तो जिसमें दोष नहीं था उसे दोष लगाया। इसलिये ऐसा वर्णन करना तो निन्दा है - स्तुति नहीं है। तथा स्तुति करते हुए जिन गुणोंका वर्णन करते हैं उस रूप ही परिणाम होते हैं व उन्हीं में अनुराग आता है। सो काम-क्रोधादि कार्योंका वर्णन करते हुए आप भी कामक्रोधादिरूप होगा अथवा काम-क्रोधादिमें अनुरागी होगा, सो ऐसे भाव तो भले नहीं हैं। यदि कहोगे - भक्त ऐसा भाव नहीं करते, तो परिणाम हुए बिना वर्णन कैसे किया ? उनका अनुराग हुए बिना भक्ति कैसे की? यदि यह भाव ही भले हों तो ब्रह्मचर्यको व क्षमादिकको भला किसलिये कहें ? इनके तो परस्पर प्रतिपक्षीपना है। तथा सगुण भक्ति करने के अर्थ राम-कृष्णादिकी मूर्ति भी श्रृङ्गारादि किये, वक्रत्वादि सहित, स्त्री आदि संग सहित बनाते हैं; जिसे देखते ही काम-क्रोधादिभाव प्रगट हो आयें। और महादेवके लिंगहीका आकार बनाते हैं। देखो विडम्बना ! जिसका नाम लेनेसे लाज आती है, जगत जिसे ढंक रखता है, उसके आकारकी पूजा कराते हैं। क्या उसके अन्य अंग नहीं थे ? परन्तु बहुत विडम्बना ऐसा ही करनेसे प्रगट होती है। तथा सगुण भक्तिके अर्थ नानाप्रकारकी विषय सामग्री एकत्रित करते हैं। वहाँ नाम ठाकुर का करते हैं और स्वयं उसका उपभोग करते हैं। भोजनादि बनाते हैं और ठाकुर को भोग लगाया कहते हैं; फिर आप ही प्रसादकी कल्पना करके उसका भक्षणादि करते हैं। सो यहाँ पूछते हैं – प्रथम तो ठाकुर के क्षुधा-तृषाकी पीड़ा होगी, न हो तो ऐसी कल्पना कैसे सम्भव है ? और क्षुधादिसे पीड़ित होगा तब व्याकुल होकर ईश्वर दुःखी हुआ, औरोंका दुःख कैसे दूर करेगा? तथा भोजनादि सामग्री आपने तो उनके अर्थ अर्पणकी सो की, फिर प्रसाद तो ठाकुर दे तब होता है, अपना ही किया तो नहीं होता। जैसे कोई राजा को भेंट करे, फिर राजा इनाम दे तो उसे ग्रहण करना योग्य है; परन्तु Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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