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सम्पादकीय
आचार्यकल्प महापंडित टोडरमलजी द्वारा लिखित प्रस्तुत ग्रंथ 'मोक्षमार्गप्रकाशक' इस युगमें दिगम्बर जैन समाजका सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला ग्रंथराज है। आज समाजका ऐसा कोई घर नहीं होगा जहाँ मोक्षमार्गप्रकाशक न हो, ऐसी कोई अध्यात्मगोष्ठि नहीं होगी जहाँ मोक्षमार्गप्रकाशक का स्वाध्याय प्रतिदिन न किया जाता हो। घर-घर पहुँच जानेके बाद भी इसकी मांग निरन्तर बनी ही रहती है।
__ अपनी विषयवस्तु और भाषाशैलीमें बेजोड़ इस कृतिका एक सुसम्पादित सुन्दरतम् संस्करण प्रकाशित करनेकी भावना मनमें तभी से थी जब मैंने महापंडित टोडरमल के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर शोधकार्य किया था। यद्यपि भगवान महावीर के पच्चीससौवें निर्वाण वर्ष के अवसर पर प्रकाशित संस्करण में प्रस्तावना लिखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था, तथापि समयाभाव एवं अन्य परिस्थितियोंके कारण सम्पादन संभव न हो सका।
इसके मूल स्वरूपको अक्षुण्य रखते हुए इसके सम्पादनमें अब तक प्रकाशित सभी संस्करणोंका उपयोग तो किया ही गया है, फिर भी पंडित टोडरमलजीके स्वयं के हाथसे लिखी गई मूलप्रतिकी फोटोकापी को ही मूलाधार मानकर पाठ रखे गये हैं।
मूलप्रतिमें तो कोई शीर्षक ( हैडिंग) वगैरह हैं नहीं; प्रकाशित प्रतियोंमें जो शिर्षक दिये गये हैं, उनमें परिमार्जन की बहुत आवश्यकता प्रतीत हुई। यही बात विराम, अल्पविराम, अर्द्धविराम, पैरा आदिके सम्बनधमें भी अनुभव हुई। अत: विषयवस्तुको सहजबोधगम्य बनानेकी दृष्टि से शीर्षक आदिमें आवश्यक परिमार्जन, परिवर्तन, परिवर्द्धन किया गया है। कुछ शीर्षक बदले हैं, कुछ हटाये हैं, कुछ नये भी जोड़े हैं। जहाँ तक बन सका, उन्हें युक्तिसंगत बनाने का यत्न किया गया है।
लम्बे-लम्बे पैरा पाठक में एक ऊब पैदा करते हैं, अतः जहाँ तक संभव हो सका है छोटे-छोटे पैरा रखनेका यत्न किया गया है। ऐसा करने पर भी जहाँ तक बन सका है, प्रस्तुत संस्करणके पृष्ठोंका मैटर पुराने संस्करणोंके पृष्ठानुसार या उसके आसपास रखने का प्रयास किया गया है ताकि उन शास्त्रसभाओंमें जहाँ श्रोतागण भी ग्रन्थ लेकर बैठते हैं, वहाँ नये व पुराने संस्करण के कारण विशेष असुविधा न हो; किन्तु नौवें अधिकार तक आते-आते कारणवश यह क्रम गड़बड़ा गया है।
___ कुछ शीर्षक तो एकदम अटपटे थे; जैसे सातवें अधिकारके निश्चयाभासी प्रकरणमें समागत ‘केवलज्ञाननिषेध' शीर्षक असंगत ही नहीं, अपितु भ्रामक भी है। इस शीर्षक से ऐसा लगता है कि जैसे लेखकको केवलज्ञान अभिष्ट नहीं है और वह इसका खंडन कर रहा है, जबकी यह बात बिलकुल नहीं है। बात तो यह है कि कोई निश्चयाभासी मिथ्यादृष्टिजीव अपनी अल्पज्ञानरूप वर्तमान दशा में भी अपने को केवलज्ञानसे युक्त मान लेता है - यहाँ उसका निषेध किया गया है।
इसी प्रकार और भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं।
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